Sunday, April 19, 2009







राजनीतिक दल अब सियासी गिरोह

चुनाव के दौरान सियासी हुक्मरान जिस तरह की तकरीरें पेश करते हैं, ये लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक और घातक है। आचार संहिता को ताक में रखकर आवाम को जात -पात, कौम, धर्म और बिरादरी में बांटा जा रहा है। दल बाहुबल और पैसा देखकर अपना उम्मीदवार तय कर रहे हैं। यह जम्हूरियत का मजाक उड़ाना नहीं तो और क्या है, कि कहीं एक संप्रदाय विशेष के खिलाफ बयान दिए जा रहे हैं तो कहीं गुड़िया-बुढ़िया जसी शब्दावली का प्रयोग किया जा रहा है। इधर जूता संस्कृति भी अपने पांव पसार रही है, इसके लिए भी दोषी राजनीतिक दल ही हैं। यह बौखलाहट है, आवाम की आवाज अनसुनी करने की। मैं पूंछता हूं कि आजादी के बासठ सालों बाद भी दल अपने लिए कोई नियमावली क्यों नहीं बना पाए? ऐसा नहीं है कि पहले हम प्रचार नहीं करते थे, दूसरे दलों की खामियां भी उजागर करते थे। लेकिन तहजीब के साथ। आवाम को भटकाते और धमकाते नहीं थे। हर पार्टी के पास अपना निजी मुद्दा होता था। आज तो बस अपने दामन को पाक-साफ बताने और दूसरे पर कीचड़ उछालने के सिवा अपना कोई मुद्दा ही नहीं है। तब नेता और नौकरशाह दोनों ईमानदार थे। 1957 का एक वाकया बताता हूं, उस समय खुर्जा सीट से समाजवादी पार्टी के ठाकुर छतर सिंह अपने निकट के प्रतिद्वंदी कांग्रेसी उम्मीदवार से 621 वोटों से जीते थे। अपने उम्मीदवार के प्रचार के लिए हमने एक बैनर बनाया। उसमें लिखा पिछले दस सालों से सत्ता में काबिज कांग्रेस ने पूजीपतियों को बढ़ावा दिया। आवाम का एक तबका आज भी हासिए में है। नीचे लिखा, अगर आपका जमीर गवाह देता है कि कांग्रेस को चुनना चाहिए तो आप उसी को वोट दिजीए। न कहीं असभ्य भाषा का प्रयोग न ज्यादा शोर-शराबा। रिप्रजेंटेटिव पीपुल्स एक्ट 123 (3) के तहत हमारी पेशी हुई कि हमने जनता को भड़काकर वोट मांगे। हम अदालत पहुंचे हमने कहा भाई हमने कहीं भी यह नहीं कहा कि आप हमें वोट दें। हमने कहीं कोई झूठे तथ्य सामने नहीं रखे। जज साहब ने पूरे मामले को समझा-बूझा और कहा, इस बैनर में ऐसा कुछ भी नहीं है जिस एतराज किया जाए। सत्ता में कांग्रेस थी उसने प्रदेश मुख्यमंत्री पंथ साहब को खत लिखकर दुबारा चुनाव कराने की बात कही, आप यकीन नहीं मांगेगे डीएम ने मुख्यमंत्री से बात करके पूरे मसले को साफ किया कि शक की कोई गुंजाइश नहीं है, चुनाव बेहद साफ-सुथरे ढंग से हुए हैं। क्या आज कोई नौकरशाह ऐसा कर सकता है, या कहें कि इतनी आसानी से नेता नौकरशाह की तकरीर पर अमल करेंगे, नहीं। अब तो नौकरशाही, राजनीति का हिस्सा बन गई है। पं्रहवीं सभा के पहले चरण का मतदान लहू- लुहान रहा। सारा तंत्र फेल हो गया है। आज, राममनोहर लोहिया के चौखंभा राज्य की संकल्पना ध्वस्त हो गई। पूंजी और बाहुबल का गठजोड़ सत्ता चला रहा है। मैं फौजी हूं, हमने अपने देश से उस ब्रिटिश हुकूमत के पांव उखाड़ दिए जिसके लिए कहा जाता था कि उनके राज्य में कभी सूरज अस्त नहीं होता। मुङो यकीन है, जल्द ही बदलाव होगा, किसी दल विशेष की सोच के साथ बल्कि स्वतंत्र विचारों के साथ नौजवान आगे आएंगे।
बिहार में सिलिपिंग पार्टनर है भाजपा
बिहार में स्लीपिंग पार्टनर है भाजपासाइलेंट किलर के रूप में मशहूर नीतीश ने अपनी सहयोगी भाजपा को पिछले तीन सालों में तीन कोस पीछे कर दिया है। सूबे की तरक्की को नीतीश ने अपने अभामंडल से इस कदर जोड़ रखा है कि भाजपा के पास सिवाए नीतीश वंदना के और कोई चारा नहीं है। सूबे के उमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी नीतीश के मोहपाश मेंप इस कदर बंधे हैं कि सरकार का हर निर्णय जैसे नीतीश का फैसला होता है। यह बात समझ से परे है कि सुशील मोदी आखिर उपमुख्यमंत्री पद से इतने संतुष्ट क्यों हैं? वरना क्या कारण था कि सुशील मोदी प्रमुख सहयोगी दल के नाते नेतृत्व की बागडोर स्वंय लेने का दावा नहीं ठोकते। कंाग्रेस ने कई राज्यों में बारी-बारी से मुख्यमंत्री का समझौता समझदारी से निभाया है।वैसे भाजपा के लिए जरूर गठबंधन का यह फार्मूला कड़वा रहा है। और हर बार इस बाबत भाजपा की किरकिरी हुई। हालंाकि यह कहना न्यायसंगत नहीं होगा कि भाजपा अतीत से संज्ञान लेकर बिहार में हाथ-पंाव नहीं मार रहीं है। बेशक नीतीश ने अपने मैनेजमेंट के बूते मीडिया समेत जनता को अपनी हर कवायद का लोहा मनवाया है। अब जब चुनाव सिर पर है नीतीश शिक्षा के क्षेत्र में बिहार की भूख को बिहार में ही पूरा करने को जीजान से जुटे हैं। इस कवायद में नीतीश जहां जाते हैं,इंजीनियरिंग और मेडिकल कॅालेज का प्रसाद बंाट कर आ जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि नीतीश की ये घोषणाएं जब पूरी होगी तब होगी। सरकार के पास फौरी उपाय का नितंात अभाव है। ‘ौक्षणिक माहौल बनाने के साथ-साथ शिक्षा की गुणवता भी नीतीश की हड़बड़ी का शिकार हुआ है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए बड़ी तादाद में बहाल किए शिक्षकों के बारे में बिहारी मानस की राय बताने की जरूरत नहीं है। अंको के आधर पर हुई नियुक्ति की चयन प्रक्रिया पर विवाद हो सकता है लेकिन जो शिक्षक बहाल हुए हैं। उनकी गुणवता,कार्यकुशलता तथा इस पेशे के प्रति रूचि पर गंभीर प्रश्नों के जबाब भी इस सरकार को देने होगें।क्या आप नियुक्ति में उम्र को नजरअंदाज कर उत्साहहीन उम्मीदवारों को ’’ कुछ नही ंतो यही ’’ की तर्ज पर नौकरी बंाट रहें हैं ? कॅामन स्कूल सिस्टम के बारे में खूब हो-हल्ला मचा। इसी सरकार ने मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में ’ कॅामन स्कूल सिस्टम ’ आयोग गठित किया। आयोग ने 8 जून 2007 को सरकार की अपनी रिपोर्ट भी दे दी। सरकार को यह बताना चाहिए कि वह इस पर क्यों कुंडली मारे बैठी है। क्या यह मीडिया हाइप के लिए किया गया स्टंट था। सिर्फ शिक्षा के के क्षेत्र में ही नहीं तमाम क्षेत्रों में नीतीश गरजने वाले बादल ज्यादा साबित हुए हैं। नीतीश आत्मविश्वास से इस कदर भरे हुए हैं कि उन्होंने कुछ दिनों पहले दो टूक कह दिया कि बिहार में आम चुनाव आडवाणी को आगे कर नहीं, राज्य सरकार के विकास को आगे कर लड़ा जाएगा। आश्चर्य है कि भाजपा को यह बयान भी परेशान नहीं कर रहा है। जब यह साफ है कि मतदाता के लिए लोकसभा चुनाव और विधान सभा चुनाव के लिए पैमाने अलग होते हैं। अब अगर बिहार की आवाम को यह लगता है कि मनमोहन सिंह खरे नहीं उतरे, और आडवाणी वेटिंग में है। तो उस लिहाज से मतदाता अपना फैसला सुना सकता है। लेकिन नीतीश वोटर को दिग्भ्रमित करने का पूरा प्रयास करते नजर आ रहें है। वैसे बिहार में नीतीश सरकार कितनी खरी उतरी है वह 2010 के विधानसभा चुनाव में साफ हो जाएगा। सच बात तो यह है कि नीतीश को लोकसभा चुनावों में अच्छे परिणाम की बू आ रहीं है। वह चाहे, सूबे में विकास के कारण हो चाहे परिसीमन का उलटफेर हो या एंटी इन कंबेसी। साथ ही भाजपा पर एक अप्रत्यक्ष दबाब भी बनाना चाहते हैं जिससे सीटों के बंटवारे में उन्हें ज्यादा मशक्कत न करनी पड़े। वैसे नीतीश ने यह कहकर बहुत कुछ साफ कर दिया है कि मुस्लिम बहुल सीटों से भजपा को अपना दावा छोड़ देना चाहिए। क्योंकि मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देते।बिहार की राजनीति में नीतीश के उभार से भाजपा ही नहीं लालू और पासवान को भी परेशान होने की जरूरत है। क्योंकि बिहार में इतिहास बनते बिगड़ते देर नहीं लगती ?सौरभ कुमार (स्वतंत्र लेखन)भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली 110067

Friday, April 17, 2009

सियासी मंदी का दौर

सुरें्र सिंह
पं्रहवीं लोकसभा चुनाव जूतम-बाजार, बद्जुबानी और बाहुबली उम्मीदवारों के लिए याद किए जाएंगे। बाहुबल और पूंजीबल के सामने जनता निर्बल है। राष्ट्रीय राजनीति दलों के दलदल में फंसती जा रही है। पहले भी पार्टियां चंदा इकट्ठा करती थीं। लेकिन आज पूंजी का प्रबंधन किया जाता है, चंदा उगाह जाता है। शुरुआती दौर में कांग्रेस के एस के पाटिल, सीवी गुप्ता, अतुल घोष, महावीर जसे लोग चुनाव खर्च के लिए चंदा जुटाते थे। विश्वास नहीं करेंगे, लेकिन सीवी पाटिल की मौत के बाद उनके घर से एक तखत और कुछ पढ़ने-लिखने का सामान, महावीर त्यागी के घर से एक टूटी कुर्सी और कुछ रोजमर्रा की जरूरत वाला सामान। कहने का मतलब है कि पहले राजनीति पैसे बटोरने का जरिया नहीं थी। लोकतंत्र की परिभाषा जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए आज अमीरों का, अमीरों के द्वारा, अमीरों के लिए में तब्दील हो गई है। जिस तरह से आचार संहिता की धज्जियां उड़ाकर बयान बाजी हो रही है इससे इसे सियासी मंदी का दौर ही कहा जा सकता है।
चुनाव से ही जुड़ा हुआ एक और वाकया है। एक बार हिसाब-किताब को लेकर महावीर त्यागी और नेहरू में ठन गई। त्यागी ने उस समय 12 हजार रुपए चंदा इकट्ठा किया। हालांकि जमींदार से चंदा लेने से पहले ही उन्होंने साफ कर दिया था कि वो दो हजार रुपए अपनी पत्नी सर्मिठा को चुनाव लड़ाने में खर्च करेंगे। लेकिन नेहरू को हिसाब देते वक्त वह यह बताना भूल गए। इस पर नेहरु बहुत नाराज हुए। महावीर भी खफा हुए। पर जसे ही उन्हें पैसों का हिसाब याद आया वो फौरन आनंद भवन पहुंचे और माफी मांगी।
चुनाव प्रचार भी बेहद सीधे-साधे ढंग से किया जाता था। पार्टियां एक चौक बनाकर, झंडे गाढ़कर बैठ जाती थीं। दल के मुखिया वहां आकर बेहद सीधे-साधे अंदाज में अपना मुद्दा बताते थे। आज हर पार्टी अपना घोषणा पत्र जारी करती है। मुद्दा विहीन घोषणा पत्रों में पार्टी महिमामंडन, सत्ता पर काबिज दल की बुराईयों के सिवा कुछ भी नहीं होता। नेहरू के ही समय का एक और चुनावी वाकया है, नेहरू ने संसद में बोला कि इस बार चुनाव में शराब और पैसे का प्रयोग किया गया है। वहां मौैजूद श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस गलतफहमी का शिकार हो गए कि नेहरु ने वाइन, मनी के साथ वुमेन अल्फाज का भी प्रयोग किया है। इस पर उन्होंने अपनी नाराजगी दर्ज कराई लेकिन जब उन्हें पता चला कि वो गलतफहमी का शिकार हुए थे, तो उन्होंने बाकायदा नेहरु से माफी मांगी। इस बात को बताने के पीछे मेरा मकसद है कि तब राजनीति सिद्धांतों से प्रेरित थी, गरिमा का ध्यान रखा जाता था। तब चुनाव लड़ने का आधार मुद्दे होते थे। आज तो ऐसी राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जब सीपीआई के भूपेश गुप्ता बोलते थे तो हर दल का नेता उन्हें ध्यान से सुनता था। राममनोहर लोहिया बोलते थे तो नेहरु सिद्दत के साथ उन्हें सुनते थे।