सुबह-सुबह उठो! अक्सर देर से ही उठ पाती हूं। रात को देर से जो सोती हूं। दिनचर्या बिल्कुल बर्बाद हो गई है। पढ़ती हूं, नौकरी करती हूं। खाना बनाती हूं। दोनों वक्त का न सही। खाने में कई बार मैगी, पोहा और ब्रेड होता है। कपड़े धुलती हूं। जब सारे गंदे हो जाते हैं। एक-एक कर धुलती हूं। मतलब वो सारा काम करती हूं जो मेरी मां मेरे लिए करती थी। लेकिन बेसलीका होकर। ठंड में घर से निकलती हूं, गरम कपड़े पहनकर। पर कोई पीछे से आकर मेरा मफलर मुङो जबरदस्ती नहीं थमाता।
जब से नौकरी करने आई हूं ऐसे ही दिन कट रहे हैं। अलसी के लड्डू हालांकि मां घर से बनाकर सर्दी शुरू होने से पहले ही भेज देती हैं, लेकिन वो डिब्बे में रखे-रखे ही फेंक दिए जाते हैं। उनका स्वाद मुङो नहीं जंचता। लेकिन मां तो हाथ में थमाती थी जबरदस्ती खिलाती थीं। और प्यार से बोलती थीं कि सर्दी बहुत है। अलसी गरम होती है। मेवे के लड्डू, शुद्ध देशी घी में बने भी भेजती हैं, उनका स्वाद जंचता है, पर दफ्तर की हड़बड़ में कभी-कभार ही इन्हें खाने का ध्यान आता है। फोन पर वो मुङो बार-बार कहती हैं कि बिटिया सर्दी बढ़ गई है। कान ढककर रहना। दफ्तर से जल्दी आ जाया करो। दो बादाम भिगो दिया करो और सुबह खा लिया करो। मैं झल्लाकर बोलती हूं कि इतना वक्त मेरे पास नहीं होता। और दफ्तर कोई मेरे चाचा का है जो ठंड लगे तो भाग आओ। वो बुरा नहीं मानतीं और अपनी गरज जताते हुए फिर मुझसे कहती हैं। अरे बिटिया तुम जब रात में खाना खाया करो तो उसी वक्त एक कटोरी में बादाम भिगो दो और जब चाय बनाने जाओ तो खा लिया करो। अब मैं पिघल जाती हूं और कहती हूं कि अच्छा ठीक है खा लूंगी। और फिर सोचती हूं कि मां तो बुजुर्ग हैं उनका ख्याल कौन रखता होगा। मैं दोबारा शाम को फोन करती हूं उनसे पूछती हूं आप बादाम खाती हो? लड्डू तो बनाए हैं न अपने और पापा के लिए। वो मेरी बात को अनसुना कर फिर से वही राग अलापती हैं, तुम घर नहीं पहुंची अभी तक? बिटिया छुट्टी लेकर आ जाओ, बहुत ठंडी है। मुङो पता है कि वो सारी हिदायतें जो मां मुङो देती हैं वो खुद नहीं मानतीं। आज जब मैं फौजिया अबू खालिद की कविता ‘नाभि नाल पढ़ रही हूं तो मुङो मेरी मां याद आ रही है, फौजिया कहती हैं मेरी मां ने रेगिस्तान से एक डोर खींची रेत की /और उसे नत्थी कर दिया मेरी नाभि से/चाहे जितनी दूर चली जाऊं मैं/उस बाल्टी की तरह होती हूं/जो बेमतलब ही कोशिश किए जा रही है/कुएं के गहरे पानी में झलकते चांद को उठाने की। कुछ ऐसा ही आज मुङो लग रहा है जब दूर उनसे परदेस में सालों से अपने स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश में भटक रही हूं। बचपन में जो जिस नाभि नाल से मैं मां से जुड़ी थी।
जन्म लेते वक्त दायी ने उसे काट दिया था लेकिन हकीकत में वो नाल कोई काट नहीं सकता। या कि डरती हूं उस नाल के कटने से। दूर सही पर सुकून है मेरी मां तो है। उनके बूढ़े हाथ किसी भी बला से बचाने में मुङो सक्षम नजर आते हैं। जब मैं रोज की जद्दोजहद से तंग आ जाती हूं। उदास होकर उनसे अपनी थकान साझा करती हूं तो वो बेहद दृढ़ होकर मुझसे कहती हैं कि मुङो पता बिटिया तुम बहुत तरक्की करोगी। मेरा आशीष तुम्हारे साथ है। एक दिन तुम अपनी मंजिल जरूर पाओगी। मुङो भरोसा है और मेरी थकान छू-मंतर हो जाती है। मैं फिर जुट जाती हूं अपने काम में। मुङो खुद पर नहीं उनके भरोसे पर भरोसा होता है। कल रात मेरी दोस्त की मां का फोन आया था, मैं उससे तस्दीक की कि क्या तुम्हारी मां भी वही सब बोलती हैं जो मेरी मां कहती हैं। मुङो अचम्भा हुआ कि उसकी मां बिल्कुल मेरी मां जैसी ही हैं, उन्हें भी चिंता सताती है कि उनकी बेटी को ठंड न लग जाए, वो भी उसे बार-बार घर आने को कहती हैं, मफलर पहनने को कहती हैं। पर जब वो करीब होती हैं तो एहसास ही नहीं होता कि उनका होना कितना कीमती है। फिर उन बच्चों को देखती हूं जो कड़ाके की ठंड में नंगे पैर चौराहों और भीड़ भरी सड़कों के बीच कभी पोस्टर बेचते हैं तो कभी फूल। कभी थालियों में भगवान की तस्वीरें रखकर आधे-अधूरे कपड़े पहनकर भीख मांगते हैं। शुक्र है दूर ही सही पर मेरी मां तो है।
टर्मिनल 3
2 weeks ago
मुङो अचम्भा हुआ कि उसकी मां बिल्कुल मेरी मां जैसी ही हैं
ReplyDeleteरुआंसा कर दिया आपने
aap bahut dil sae padhtae hain
Deleteसंध्याजी ,अच्छा और दिल से लिखती हैं,बहुत आगे तक जोगी...यूँ ही लिखते रहो,रोते रहो,हँसते रहो !
ReplyDeleteआज के 'जनसत्ता' में इस पोस्ट के छपने की बधाई !
sukriya santosh ji
Deleteबहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति संध्या जी । सीधा दिल से उतर कर दिल तक पहुंची बात । बडी ही सरलता से आपने बहुत कुछ कह दिया । मानवीय संवेदनाओं का सुंदर समावेश ।
ReplyDeletethanx ajay ji
Deleteखूबसूरत अभिव्यक्ति संध्या..ऐसे ही लिखती रहो
ReplyDeletesukriya...ji
DeleteWow di.... superb...heart touching
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