घूरते हैं, ये बच्चे जब पूछो पढ़ाई क्यों नहीं करते।
घूरते हैं, ये बच्चे जब पूछो खेल क्यों नहीं खेलते।
बौखला जाते हैं, ये बच्चे जब पूछो उम्र क्या है?
तिलमिला जाते हैं, ये बच्चे जब बार-बार ये सब पूछो।
देखकर दूर से किसी शहरी को दूर भाग जाते हैं, ये बच्चे।
पीछाकर फिर दोहराव सवाल तो कहते हैं, पता नहीं!
दूर पल्लू सिर पर लिए, कृशकाय खड़ी एक औरत।
देख रही अपने इन बच्चों को गुस्से और खीझ से।
पूछने पर ये सारे सवाल झल्लाती और खीझती है।
पढ़ाई से रोटी तो नहीं मिलती।
रोटी के लिए तोड़ने पड़ते हैं, पत्थर।
खेलेंगे तो रोटी कैसे खाएंगे।
रोटी के लिए चलाना पड़ता है, फावड़ा।
उम्र क्या करोगे पूछकर।
फिर अलापोगे सरकारी अलाप।
बताओगे शिक्षा का अधिकार है, इन्हें।
तो सुन लो साल से ऊपर हो चुके हैं, ये बच्चे।
फिर वो चुप हो जाती है, शून्य में खो जाती है।
शायद अपने इस झूठ से आत्मग्लानि से भर जाती है।
फिर संभलती है, पल्ला सिर पर चढ़ाती है,फावड़ा उठाती है।
घूरती है मुझे और उन सभी सवालों को।
गरीबी से बड़ा गुनाह तो नहीं है, ये झूठ।
आत्मग्लानि फिर गुस्से में बदलती है, खीझती है।
और कहती है आधी ट्राली बांकी है,अभी पत्थर।
मत बर्बाद करो वक्त, नियमों से रोटी तो नहीं मिलती।
स्तब्ध तर देती है ये रचना ... छोड़ जाती है बस प्रश्न .. प्रश्न ...
ReplyDeletethanx for your comment and motivation
ReplyDeleteबहुत गहरे अर्थ सुन्दर शब्दों में ढले हुए ।
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