Monday, December 26, 2011
क्यों छाए ‘अन्ना’ और ‘कोलावेरी डी’
Tuesday, December 20, 2011
..फिर सब कुछ खुदरा हो जाएगा!
आलू, टमाटर, गोभी, अदरक, लहसुन, प्याज। सभी सब्जियां झोले में डालने के बाद मेरी मां हिसाब करतीं। ये लो दीदी, बावन रुपए। मेरी मां पचास का नोट निकालतीं। लो, दो रुपए और.. अरे भइया रोज तो तुम्हारे यहां से ही लेते हैं। और हां, थोड़ा धनिया और मिर्च डाल देना। वह भी जिद छोड़ देता। मुङो देखता छोटी बिटिया है का? हां. मेरी मां बताती कल आई है। हरिद्वार में पढ़ती है। बहुत दुबरा गई हो बिटिया। मैं बस मुस्करा देती। और बहुत दिन होइ गए बउवा नहीं आए। हां, काल आ जइहैं। अब पढ़ाई-लिखाई के मारे फुर्सत नहीं मिलती। वो सब्जी वाला मेरी सेहत को लेकर जितना चिंतित लगता, उतना ही मेरी पढ़ाई लिखाई को लेकर गर्वान्वित होता। मुङो भी वो दादा जी बेहद अच्छे लगते। वो सब्जी तौलते-तौलते मेरी मां से पूछते और बड़ी बिटिया के लिए लड़का मिला की नाहीं। मेरी मां लंबी सांस लेकर जवाब देतीं। हां, देख रहे हैं। अपनत्व से भरे दादा जी कहते दुबाइन जब समय अई तो पता ना लागी।
सब्जीवाले दादा जी मां को अपनत्व के साथ ऐसे समझाते जसे वो हमारे घर का हिस्सा हों। फिर सब्जी मंडी की दूसरी तरफ नमकीन-बिस्किट और चटर-पटर चीजों की दुकान पर मेरी मां पहुंचतीं। जब हम घर पहुंचते थे मेरी मां तभी नाश्ते की दुकान की तरफ रुख करती थीं। मैं चीजों को चखने और देखने में मशगूल हो जाती। उधर से आवाज आती, नमस्ते चाची। अरे बिटिया आई है। भइया ये वाली दे दो। मैं एक ड्राई फ्रूट से लबालब नमकीन उठाती, मम्मी ये एक पैकेट बउवा के लिए ले लो।
दरअसल, उस वक्त मेरा भाई बीटेक कर रहा था मैं एमए। वो लखनऊ में और मैं हरिद्वार में रहते थे। सामान तौलते-तौलते दुकानवाले भइया मुझसे पूछते बिटिया दुबरा बहुत गई हो। लेकिन पढ़-लिख लोगी तो जिंदगी संवर जाएगी। चाची आपके दोनों छोट बिटिया और बउवा बहुत होशियार हैं। और हां चाची एक लड़का है, उसकी कुंडली लेकर आपको दे देंगे। मां कृतज्ञता जाहिर करतीं-बस बड़ी बिटिया की शादी हुई जाए, बाकी इ दोनों तो हिल्ले लग जइहैं। आज भी वहां सब जस का तस है। मां आज भी मुफ्त में धनिया-मिर्च लेती हैं। हमेशा पूरा हिसाब करती हैं, मतलब 52 तो 50, लेकिन कभी 48 होने पर 50 नहीं देतीं। मैं एक ऐसे समाज की बात कर रही हूं जहां सब्जीवाले दादा जी से लेकर जूस वाले चचा तक, नमकीन वाले भइया से लेकर किराने वाले अंकल तक सब हमारे दुख-सुख के साझीदार हैं। आज सोचती हूं कि कहीं मेरे घर के आसपास भी कोई वॉलमार्ट पहुंच गई तो सबकुछ बदल जाएगा। क्योंकि वहां कोई दादा जी और भइया नहीं होंगे। खुदरा स्टोर आ जाएंगे तो सब खुदरा हो जाएगा, रिस्ते भी।
Tuesday, November 29, 2011
बहस ‘आजकल’ कुछ खट्टी कुछ मीठी
Tuesday, October 25, 2011
चराग तले अंधेरा क्यों?
छौना पत्रकार हूं, सो पत्रकारिता अभी सिर चढ़कर बोलती है। पिछले साल दीवाली को दफ्तर पहुंचते ही आदेश हुआ कि उत्तम नगर चले जाओ, वहां कुम्हारों की बस्ती है। दीपावली पर विशेष सामग्री इकट्ठी करनी है तुम्हें। उछलता-कूदता मैं पहुंच गया स्पॉट पर। कुछ पूरे कच्चे, कुछ आधे कच्चे घर। उन पर ढेर के ढेर मिट्टी के बने दीये, झूमर, लक्ष्मी, गणेश समेत कई अन्य सामान। देखकर जी खुश हो गया। दाम-वाम पूछे। साथ में फोटोग्राफर था। वो तो मानों इस नजारे को देखकर काबू में नहीं थे। कहीं कच्चे चूल्हों के पास बैठी महिलाएं को अपने कैमरे में कैद करते तो कहीं चाक पर घूमती उंगलियों को। नजारा भी अद्भुत था। कई महिलाएं और बच्चे गीली मिट्टी के ढेर को पैरों से रौंधने में लगे थे। माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रौंधे मोह..इस दृश्य को देखकर यही पंक्तियां याद आ रही थीं। अब बारी थी, कुछ प्रसिद्ध कुम्महार परिवारों से मिलने की। ग्रामीण परिदृश्य को देख प्रफुल्लित होने के बाद अब बारी चौैंकने की थी। कॉलोनी में कुछ ऐसे परिवार थे, जिनके हुनर को पूर्व राष्ट्रपतियों ने सराहा था। उन्हें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के सर्टिफिकेट भी मिले थे। लेकिन अब उनके आगे की पीढ़ी इस काम को अपनाना नहीं चाहती थी। इससे ज्यादा ताज्जुब तब हुआ जब परिवार के बुजुर्ग भी नई पीढ़ी के इन विचारों से सहमत थे। वो भी नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे इस काम में लगें। मैंने एक बुजुर्ग से पूछा अगर आप लोग ऐसा करेंगे तो धीरे-धीरे यह हुनर लुप्त हो जाएगा। इससे देश अपनी एक पारंपरिक विरासत से वंचित हो जाएगा। जी होता है तो हो। फिर आपको तो सर्टिफिकेट भी मिले हैं। सर्टिफिकेटों से पेट नहीं भरता। हुनर को सराहने से काम नहीं चलता। हमारा हुनर और मेहनत मिट्टी के भाव खरीदकर व्यवसायी चार गुना दामों में बेचते हैं। इन बच्चों को इस काम में डालकर उनके भविष्य को मिट्टी में नहीं मिलाना चाहते हैं। अब मेरे पास कोई जवाब नहीं था। उस बुजुर्ग के चेहरे से हटकर मेरी नजर उन दीपकों पर जाकर टिक गई, जो खास दीपावली के लिए बनाए गए थे। कसीदाकारी किए दीये। तरह-तरह की आकृति। मैंने कुछ अपने लिए कुछ दोस्तों के लिए दीवाली की शुभकामनाएं देने के लिए बतौर उपहार देने की नियत से दीपक खरीद लिए। घर पहुंचा घर वालों औैर पड़ोसियों ने दीपकों को खूब सराहा। इन दीयों ने उजाला भी बिखेरा। जलते दीयों को देखकर मैं उस हुनरमंद कुम्हार की बातें याद कर रही थी और जब ये कुम्हार मर जाएगा तो दीपक कौन बनाएगा। सवाल उठ रहा था मन में आखिर चिराग तले अंधेरा क्यों?
Monday, October 24, 2011
अनसुलझा ! मसला-ए-जन
त्रिया चरित्र समझना मुश्किल है। ऐसी पहेली जो अब तक अबूझ है। इस रहस्य की थाह तो अब तक नहीं पाई जा सकी। महिलाओं के बारे में पुरुषों का सोचना कुछ ऐसा है। कुछेक दिन पहले मौज-मस्ती के मूड से मैं अपने दोस्तों से मिलने पहुंची। राजनीति, संस्कृति जसे मुद्दों पर चर्चा हुई पर सबसे ज्यादा समय औरतों के चरित्र व्याख्यान में बीता। हिसाब लगाकर देखा तो हम लोग तकरीबन चार घंटे साथ रहे। इसमें करीब ढाई घंटे महिलाओं के रहस्य को उजागर करने के लिए जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा हुआ। कल दफ्तर पहुंची तो मेरे एक सहयोगी ने भी औरत चरित्र को रहस्यात्मक बताकर परेशानी जाहिर की। उन्होंने पुरानी कहावतों का हवाला देकर कहा कि जब बड़े-बड़े बुद्धिजीवी, बादशाह तक इसे नहीं समझ सके तो फिर हम तो आम हैं। शाम हुई चाय के लिए दोस्तों के साथ दफ्तर एक खोखे में पहुंची। एक बार फिर चर्चा के कें्र में महिलाएं थीं। हालांकि इससे पहले भी मैंने अपने पुरुष मित्रों के भीतर इस रहस्य को उजागर न कर पाने की कसमसाहट देखी है। ये चर्चाएं हाल ही में हुईं सो जिक्र कर दिया। मैं महिलावादी नहीं हूं और उन चर्चाओं से मैं अक्सर कन्नी काट लेती हूं, जिनके विषय मनगढ़ंत होते हैं। औरत के विषय में भी मेरा मानना यही है कि महिलाओं पर बने जुमलों में से अधिकतर सुविधानुसार गढ़े गए हैं, इन्हें गढ़ने में पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल हैं। रात को काम खत्म किया, कैंटीन में पहुंची। फिर मेरे पुरुष मित्रों ने अपना पसंदीदा राग छेड़ा। मतलब राग-ए-औरत। मेरे लिए यह मुद्दा कभी गरम नहीं रहा। लेकिन न जाने क्यों आज रहा नहीं गया और मैं भी इसका हिस्सा बन गई। मैंने कुछ इस अंदाज में बोलना शुरू किया। मैं एक महिला हूं लेकिन मैं फिर भी किसी भी पुरुष या फिर महिला को सौ फीसदी समझने का दावा नहीं कर सकती। मां, पिता, भाई- बहन और मेरे बेहद अजीज रहे पुरुष और महिला दोनों ही मित्रों को आज तक मैं पूरी तरह से समझ नहीं पाई। अपने एक मित्र की तरफ इशारा करके मैंने कहा क्या तुम अपने फलां पुरुष मित्र को पूरी तरह समझने का दावा कर सकते हो? मेरा मानना है कि हर चरित्र व्यक्तिगत होता है। फर्क नहीं पड़ता कि वो मर्द का है या औरत का। कुछ और जोश आया, दरअसल औरत शुरू से ही नगरपालिका की जमीन रही है, जिसने चाहा खूंटा गाड़ दिया। व्यक्तिगत तौर पर मैं इसके लिए पुरुषों को पूरी तरह से जिम्मेदार नहीं ठहराती। अब सबके बस की बात नहीं कि वो देश की राजनीति पर कोई सार्थक टिप्पणी करे, अर्थ जसे गंभीर मुद्दे पर कुछ कहे, खेल पर कुछ बोले। किसी खास महिला की बात हो तो ठीक है, लेकिन उन्हें अपवाद मानकर चर्चा में रखा ही नहीं जाता। मेरा इतना कहना था कि वही हुआ जिसका मुङो अंदेशा था। उसने मुझ पर महिलावादी होने का ठप्पा लगा दिया। और बेहद रसीले अंदाज में कहा भई हम भी कब इस पर्दे को उठाना चाहते हैं। कई फुहड़ की तरह इस पर भी मैंने ध्यान नहीं दिया। वहीं बैठे शायर टाईप दोस्त ने कहा, हजार हकीमों ने समझाया पर ये मसला-ए-जन रहा वहीं का वहीं। मेरी एक दूसरी महिला मित्र ने जवाब दिया। जी पहले तो उन हकीमों की सूची लाओ, जिन्होंने पूरी जिंदगी महिलाओं पर शोध करके गुजारी हो। मेरे मुंह से बस इतना ही निकला लाजवाब!