Saturday, January 14, 2012

सर्दियों में चुनावी सरगरमी

कड़ाके की सर्दी में हिलने-डुलने का मन नहीं करता। रात को एक बार रजाई में घुसे की फिर सुबह ही उठते हैं, घर से निकलना मानों सजा मालूम देता है। पर नौकरी पर तो जाना ही है, सो हिम्मत बांधकर शरीर को कपड़ों से लादकर निकलते हैं। लेकिन उत्तरप्रदेश में चुनावी चकल्लस ने इस बार की सर्दियों को गरम कर दिया है। जनता ऊहापोह में है कि मोहर किस पर लगाएं। अबकी किसे आजमाएं। उधर नेताओं की पेशानी पर भी बल पड़े हैं। कोई पार्टी अपना दागी नेताओं को निकाल कर अपना दाम साफ कर रही है तो कोई दल जातिगत समीकरण समीकरण को पुष्ट करने के लिए दरबदर किए इन नेताओं को गले लगा रहा है। कुल मिलाकर अफरा-तफरी का माहौल है। दल बदल-बदलकर नेतागिरी करने में पारंगत नेता इस बार भी अपना राजनीतिक धर्म निभा रहे हैं। सियासी चौसर में किसकी शह और किसकी मात होगी। कहना मुश्किल है। हालांकि चुनावी विशेषज्ञ भी अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ा रहे हैं। हालांकि पिछली बार के उत्तरप्रदेश के चुनावी नतीजों ने सबका गणित बिगाड़कर रख दिया था। मुद्दों की राजनीति तो कब की गुम हो गई है सो दलबदलू नेताओं को किसी भी दल में ठौर ढूंढ़ने में कोई संकोच नहीं होता। जहां कहीं भी मौका मिले, बस लपक लो। वैसे भी दलबदलुओं की खोजी नजर पैदा हुई गुंजाइशों को फौरन ताड़ लेती है। उधर पार्टियां भी ऐसे बिन पैंदी के लोटाओं की तलाश में रहती हैं जिन्हें केवल नेतागिरी करनी है, किसी भी पार्टी का बैनर उठाने में कोई परहेज नहीं होता। हर बार की तरह इस बार भी कुछ ऐसे ही दलबदल चल रहा है। ताजा मामला बाबू सिंह कुशवाहा का है। बसपा से कई आरोपों के चलते निकाले गए कुशवाहा को भाजपा ने लपक लिया। भाजपा की मंशा तो उनके जरिए पिछड़ा वर्ग की राजनीति चमकाने की थी लेकिन दांव उलटा पड़ गया और उनकी दागदार छवि की वजह से हंगाम बरप गया। पार्टी में ही दो धड़े हो गए। इतना हल्ला मचा कि भाजपा को फिलहाल उनकी सदस्यता स्थगित करनी पड़ी। लेकिन बसपा से दरबदर किए गए बादशाह सिंह और दद्दन मिश्र भाजपा उम्मीदवार हैं। अवधेश वर्मा पंचायत चुनाव में काफी कुख्याति बटोर चुके हैं। अपने परिवार के लोगों को जिताने के लिए विरोधियों का अपहरण करवाने से भी नहीं चूके थे। गौर करने की बात है कि उस वक्त भाजपा ने इस पर खूब चीख-पुकार की थी। लेकिन अब हाथी की पीठ से उतरकर ये लोग कमल की छांव में आ गए हैं। मुख्तार अब्बास नकवी वैसे ही पार्टी को गंगा का दर्जा दे चुके हैं लिहाजा किसी भी दागदार दामन को वो अपने में समाहित करने में सक्षम है। अब बात करें समाजवादी पार्टी की तो भले ही उन्होंने डीपी यादव को अपनी पार्टी में न लिया और अपने प्रवक्ता मोहन सिंह को पार्टी से बर्खास्त कर दिया हो लेकिन फैजाबाद में शशि-कांड में लिप्त रहे सजा उम्रकैद की सजा काटने वाले आनंद सेन के पिता मित्रसेन यादव सपा के उम्मीदवार हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि पुत्र के आरोपों को यह कहते हुए खारिज किया जा सकता है कि अब बेटा नालायक निकल गया तो क्या करें? हमें तो मतलब उम्मीदवार से है लेकिन मित्रसेन भी कबूतरबाजी के मामले आरोपित रहे हैं। जेल के जिंगलों के पीछे सजा काट चुके सजा काट चुके भगवान शंकर शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित की यह सजा एक छात्र के अपहरण कर बलात्कार का मामले में मिली थी। ये भी सपा के उम्मीदवार हैं। हालांकि जब सपा, भाजपा, बसपा और कांग्रेस का दामन साफ नहीं है तो फिर आरएलडी की बिसाद ही क्या है। लेकिन जब चर्चा निकली है तो जिक्र तो होगा ही सिखों पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले हाजी याकूब कुरैशी का आरएलडी ने खुली बाहों से स्वागत किया। कुरैशी ने पैगंबर का काटरून बनाने वाले काटरूनिस्ट का सिर कलम करने वाले के लिए इनाम की घोषणा की थी। इन्हें बसपा से निकाला गया था। पूर्व बसपा विधायक शाहनवाज राणा जिन पर लड़कियों की किडनैपिंग और छेड़छाड़ का मामला था उन्हें भी बसपा में शरण मिल गई। आरएलडी की महासचिव और पूर्व मंत्री अनुराधा चौधरी की पार्टी से नहीं निभी तो वो सपा में आ गई हैं।

मां की नाभिनाल से जुड़े हम

सुबह-सुबह उठो! अक्सर देर से ही उठ पाती हूं। रात को देर से जो सोती हूं। दिनचर्या बिल्कुल बर्बाद हो गई है। पढ़ती हूं, नौकरी करती हूं। खाना बनाती हूं। दोनों वक्त का न सही। खाने में कई बार मैगी, पोहा और ब्रेड होता है। कपड़े धुलती हूं। जब सारे गंदे हो जाते हैं। एक-एक कर धुलती हूं। मतलब वो सारा काम करती हूं जो मेरी मां मेरे लिए करती थी। लेकिन बेसलीका होकर। ठंड में घर से निकलती हूं, गरम कपड़े पहनकर। पर कोई पीछे से आकर मेरा मफलर मुङो जबरदस्ती नहीं थमाता।
जब से नौकरी करने आई हूं ऐसे ही दिन कट रहे हैं। अलसी के लड्डू हालांकि मां घर से बनाकर सर्दी शुरू होने से पहले ही भेज देती हैं, लेकिन वो डिब्बे में रखे-रखे ही फेंक दिए जाते हैं। उनका स्वाद मुङो नहीं जंचता। लेकिन मां तो हाथ में थमाती थी जबरदस्ती खिलाती थीं। और प्यार से बोलती थीं कि सर्दी बहुत है। अलसी गरम होती है। मेवे के लड्डू, शुद्ध देशी घी में बने भी भेजती हैं, उनका स्वाद जंचता है, पर दफ्तर की हड़बड़ में कभी-कभार ही इन्हें खाने का ध्यान आता है। फोन पर वो मुङो बार-बार कहती हैं कि बिटिया सर्दी बढ़ गई है। कान ढककर रहना। दफ्तर से जल्दी आ जाया करो। दो बादाम भिगो दिया करो और सुबह खा लिया करो। मैं झल्लाकर बोलती हूं कि इतना वक्त मेरे पास नहीं होता। और दफ्तर कोई मेरे चाचा का है जो ठंड लगे तो भाग आओ। वो बुरा नहीं मानतीं और अपनी गरज जताते हुए फिर मुझसे कहती हैं। अरे बिटिया तुम जब रात में खाना खाया करो तो उसी वक्त एक कटोरी में बादाम भिगो दो और जब चाय बनाने जाओ तो खा लिया करो। अब मैं पिघल जाती हूं और कहती हूं कि अच्छा ठीक है खा लूंगी। और फिर सोचती हूं कि मां तो बुजुर्ग हैं उनका ख्याल कौन रखता होगा। मैं दोबारा शाम को फोन करती हूं उनसे पूछती हूं आप बादाम खाती हो? लड्डू तो बनाए हैं न अपने और पापा के लिए। वो मेरी बात को अनसुना कर फिर से वही राग अलापती हैं, तुम घर नहीं पहुंची अभी तक? बिटिया छुट्टी लेकर आ जाओ, बहुत ठंडी है। मुङो पता है कि वो सारी हिदायतें जो मां मुङो देती हैं वो खुद नहीं मानतीं। आज जब मैं फौजिया अबू खालिद की कविता ‘नाभि नाल पढ़ रही हूं तो मुङो मेरी मां याद आ रही है, फौजिया कहती हैं मेरी मां ने रेगिस्तान से एक डोर खींची रेत की /और उसे नत्थी कर दिया मेरी नाभि से/चाहे जितनी दूर चली जाऊं मैं/उस बाल्टी की तरह होती हूं/जो बेमतलब ही कोशिश किए जा रही है/कुएं के गहरे पानी में झलकते चांद को उठाने की। कुछ ऐसा ही आज मुङो लग रहा है जब दूर उनसे परदेस में सालों से अपने स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश में भटक रही हूं। बचपन में जो जिस नाभि नाल से मैं मां से जुड़ी थी।
जन्म लेते वक्त दायी ने उसे काट दिया था लेकिन हकीकत में वो नाल कोई काट नहीं सकता। या कि डरती हूं उस नाल के कटने से। दूर सही पर सुकून है मेरी मां तो है। उनके बूढ़े हाथ किसी भी बला से बचाने में मुङो सक्षम नजर आते हैं। जब मैं रोज की जद्दोजहद से तंग आ जाती हूं। उदास होकर उनसे अपनी थकान साझा करती हूं तो वो बेहद दृढ़ होकर मुझसे कहती हैं कि मुङो पता बिटिया तुम बहुत तरक्की करोगी। मेरा आशीष तुम्हारे साथ है। एक दिन तुम अपनी मंजिल जरूर पाओगी। मुङो भरोसा है और मेरी थकान छू-मंतर हो जाती है। मैं फिर जुट जाती हूं अपने काम में। मुङो खुद पर नहीं उनके भरोसे पर भरोसा होता है। कल रात मेरी दोस्त की मां का फोन आया था, मैं उससे तस्दीक की कि क्या तुम्हारी मां भी वही सब बोलती हैं जो मेरी मां कहती हैं। मुङो अचम्भा हुआ कि उसकी मां बिल्कुल मेरी मां जैसी ही हैं, उन्हें भी चिंता सताती है कि उनकी बेटी को ठंड न लग जाए, वो भी उसे बार-बार घर आने को कहती हैं, मफलर पहनने को कहती हैं। पर जब वो करीब होती हैं तो एहसास ही नहीं होता कि उनका होना कितना कीमती है। फिर उन बच्चों को देखती हूं जो कड़ाके की ठंड में नंगे पैर चौराहों और भीड़ भरी सड़कों के बीच कभी पोस्टर बेचते हैं तो कभी फूल। कभी थालियों में भगवान की तस्वीरें रखकर आधे-अधूरे कपड़े पहनकर भीख मांगते हैं। शुक्र है दूर ही सही पर मेरी मां तो है।

Thursday, January 5, 2012

एक और गंगा मगर सियासी!

भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी राष्ट्रीय पुष्प की तुलना राष्ट्रीय नदी से कर गए। नकवी की जुबान फिसल गई या फिर उनका सामान्य ज्ञान कम पड़ गया! क्या हुआ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। नकवी ने अपनी पार्टी की पवित्रता का बखान करते हुए उसकी तुलना गंगा से कर दी। हुआ यूं कि बसपा के दागी मंत्रियों को पार्टी में शामिल करने पर भाजपा की कढ़ी आलोचना हुई। खुद पार्टी ही इस मुद्दे पर दो धड़ों में बंट गई पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली और सुषमा स्वाराज को नितिन गणकरी का यह फैसला नहीं भाया। बसपा के दरबदर किए गए मंत्रियों को भाजपा में शामिल करने को लेकर उठ रहे सवालों को शांत करने के लिए नकवी सामने आए और उन्होंने कहा, कमल दल (भाजपा) गंगा जैसी पवित्र पार्टी है, जिसमें तमाम नाले आकर गिरते हैं। मगर इससे गंगा को कोई फर्क नहीं पड़ता। बसपा से बाहर किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण मंत्री बाबू लाल कुशवाह और श्रम मंत्री बादशाह सिंह भाजपा में शामिल हो गए। हो-हल्ला मचा कि भ्राष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली पार्टी ने भ्रष्टाचारियों को अपने दल में कैसे शामिल कर लिया। कहने वालों ने यहां तक कह डाला कि भाजपा के वरिष्ठ एवं वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी एक तरफ भ्रष्टाचार विरोधी यात्र कर रहे हैं और दूसरी तरफ भ्रष्टाचारियों को पार्टी में शामिल किया जा रहा है। बसपा के पूर्व बाबू लाल कुशवाहा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटालों और बहुचर्चित सीएमओ हत्याकांड में कथित तौर पर लिप्त हैं। बादशाह सिंह की बात करें तो इन्हें लोकायुक्त की सिफारिश पर पद दलित किया गया। इन पर भी पद का दुरुपयोग करने और भ्रष्टाचार जैसे संगीन आरोप हैं। सीबीआई दोनों मामलों की जांच कर रही है। मायावती अपनी पार्टी के दागी मंत्रियों को दरकिनार करने में लगी हैं। इससे पहले भी कई और मंत्री निकाले जा चुके हैं। मायावती अपनी पार्टी को साफ करने में लगी हैं। इससे पहले भी चार मंत्री वन मंत्री फतेह बहादुर सिंह, प्राविधिक शिक्षा राज्य मंत्री सदल प्रसाद, अल्प संख्यक कल्याण एवं हज राज्य मंत्री अनीस अहमद खान उर्फ फूल बाबू और मुस्लिम वक्फ राज्य मंत्री शहजिल इस्लाम अंसारी को तत्काल प्रभाव से मंत्रिमंडल से निष्कासित किया जा चुका है। उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री ने इन मंत्रियों को इस्तीफा देने का मौका भी नहीं दिया। अगर संसदीय प्रक्रिया के जानकारों की मानें तो किसी मंत्रिमंडल से निष्कासिक करने से पहले मुख्यमंत्री पहले मंत्रियों से इस्तीफा देने को कहते हैं, इसके बाद अगर मंत्री अड़े रहें तो उन्हें बर्खास्त किया जा सकता है। इतना ही नहीं एक अन्य राज्य मंत्री ददन प्रसाद ने मौके की नजाकत को समझते हुए खुद ही इस्तीफा दे दिया। बसपा प्रमुख विधान सभा चुनावों से पहले अपनी पार्टी की सफाई करने में जुटी हैं। लेकिन भाजपा को क्या हो गया कि बसपा के दर बदर किए दागी मंत्रियों को अपने दामन में समेटने में लगी है। नकवी ने शायद इसी पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए कहा होगा कि भाजपा गंगा है। जैसे गंगा में कई नाले आकर गिरते हैं लेकिन गंगा की पवित्रता ज्यों की त्यों बनीं रहती है। गंगा किसी में भेदभाव नहीं करती। लोग पाप धुलने के लिए गंगा की शरण में जाते हैं, वैसे ही भाजपा में आकर सब पवित्र हो जाएंगे। अब चाहें कुशवाहा हों या फिर बादशाह सिंह क्या फर्क। लेकिन नकवी साहब को कौन समझाए कि पापियों के पाप धुलते-धुलते राम की गंगा मैली हो गई है! दो दशक से भी ज्यादा समय से गंगा की सफाई में सरकारी खजाने के हजारों करोड़ खर्च हो चुके हैं। देश की राष्ट्रीय समस्याओं में गंगा की सफाई शीर्ष पर है। ऐसे में नकवी साहब कमल दल से गंगा की तुलना करने में अड़े हैं।