Friday, December 28, 2012

सबक ले सरकार और प्रशासन

दिल्ली में धारा-144 लगाना। मैट्रो स्टेशन बंद करना। पुलिस की प्रदर्शनों को रोकने की गैरवाजबि कोशिश थी। जिन्हें प्रदर्शन करना था, उन्होंने किया। सरकार ने जितना दमनात्मक रवैया अपनाया, जनता उतनी ही बागी हुई। पूरे मामले पर नजर रख रहे और इस पर कार्रवाई की नीति बनाने वाले लोगों को घटना की वजह से लोकर उसके दूरगामी असर के बारे में गहराई से सोचना चाहिए था। जो कि नहीं किया गया। अगर मामले के स•ाी पहलुओं, पहले घट चुकी घटना, मौजूदा समय में घट रही और •ाविष्य में पड़ने वाले प्र•ााव के मद्देनजर यह फैसला लिया जाता तो शायद यह आंदोलन उतना उग्र नहीं होता जितना की हुआ। दूसरी और सबसे अहम बात है, देश की जनता के मिजाज को समझने की। स•ाी प्रदर्शन किसी संस्था, या फिर किसी संगठन के बैनर तले नहीं थे। यह आंदोलन आम जनता का था। ऐसे में लाजिमी है कि कई आवाजें निकलें। यानी लोग अलग-अलग मांग कर रहे थे। विरोध के अलग-अलग तरीके अपना रहे थे। इन मांगों और विरोध के पीछे छिपी •ाावना को समझना जरूरी था। एक वजह के लिए इतनी बड़ी संख्या में लोगों का इकट्ठा होना अपने आपमें आप में एक नया अनु•ाव है। प्रशासन को •ाी इस बात का अंदाज शायद ही रहा हो। क्योंकि घटना कोई नई नहीं थी। मान लिया गया है कि ऐसे हादसे घटते ही रहते हैं। सो इसी खास घटना के लिए ही क्यों इतना हो-हल्ला? जवाब बेहद मुश्किल है। क्योंकि इससे ज्यादा खतरनाक मामला था, मणिपुर की मनोरमा का। आपको याद होगा कि कैसे कुछ सेना के लोगों ने बेहद क्रूरता के साथ इसका बलात्कार किया था। उसकी लाश किसी अकेले इलाके में मिली थी। उसकी योनी में सोलह गोलियां दागी गई थीं। दूसरा ही ऐसा मामला है कि छत्तीसगढ़ की सोनी सूरी का। •ांवरी देवी मामला •ाी कुछ कम दहशत पैदा करने वाला नहीं है। लेलेकिन कुछ वजहें जो मुझे समझ में आईं। एक आम व्यक्ति के तौर पर और एक मनोवैज्ञानिक के तौर पर। वो कुछ इस तरह से हैं। -यह घटना दिल्ली के •ाीड़-•ााड़ वाले इलाके मुनीरका में हुई। - उसके साथ जो लड़का था, वो लोगों की पहचान करने में सक्षम था। -लड़की •ाी गं•ाीर स्थिति में थी लेकिन जब •ाी होश आया उसने दोषियों को सजा दिलाने की मांग की। यानी इस मामले को मुद्दा बनाने के पीछे लड़की की दृढ़ इच्छा शक्ति •ाी थी। -और एक बात जो इस मामले को तूल देने अहम रही वह यह कि मीडिया का खुला सपोर्ट मिला। जैसे-जेसिका लाल हत्याकांड में मिला था। -रिपोर्टिंग इस तरह से की गई कि लोगों के संवेदना के स्तर पर जाया जा सके। - कुछ हेडलाइंस-पापा मैं जीना चाहती हूं। उन्हें सजा मिली या नहीं। आई वांट टू अलाइव एंड फाइट बैक। इस मामले पर मीडिया की लेखन शैली और ले आउट। एक शोध का विषय •ाी हो सकता है। -नर्सिंग की छात्रा थी। इस मामले में डाक्टर •ाी ज्यादा संवेदनशील लगे। मुद्दा बनाने के पीछे ये •ाी एक अहम वजह थी। कुछ लोग कह रहे हैं- -मामला क्योंकि दिल्ली में घटा। इसलिए बड़ा मुद्दा बना। -लड़की मध्यवर्गी परिवार की थी। इसलिए इसे तूल मिली। -लड़की दलित नहीं नहीं थी, सवर्ण थी। क्योंकि दलित लड़कियों के साथ तो अक्सर यह घटता है। उन्हें क्यों नहीं तूल मिलती है। तो दिल्ली सिवाए इसके और •ाी कई मामले आए हैं। सबसे हालिया मामला 26 दिसंबर का है जिसमें 42 साल की औरत का रेप हुआ। इस घटना के कुछ दिन पहले ही तुर्कमान गेट में एक सात साल की बच्ची से रेप हुआ। और •ाी कई मामले हैं। यहां सूची डालना मेरा मकसद नहीं है। सो इसे लंबा नहीं करूंगी। दूसरा मध्यवर्गीय परिवार से थी। लोग इस वजह से अंदाजा लगा पा रहे हैं क्योेंकि वह नर्सिंग की छात्रा थी। तो किसी को क्या पता कि उसे पढ़ाने के लिए शिक्षा के लिए लोन लिया गया हो। या फिर खेत बेचे गए हों। या जैसे-तैसे जुगाड़कर करके मां बाप ने यहां तक •ोजा हो। इसलिए कई लोग जो ऐसे सवाल खड़े कर रहे हैं उन्हें नहीं पता कि इस लड़की की पृष्ठ•ाूमि क्या है? वह किस जाति की है। सो जैसे कुछ शब्द राजनीतिक-प्रशासनिक शब्दावली में शामिल हो गए हैं वैसे ही कुछ शब्द ऐसे तरह के मामलों में •ाी बोले जाते हैं। जैसे-हम •ारोसा दिलाते हैं जल्द न्याय मिलेगा। कार्रवाई चल रही है। घटना शर्मनाक, दखद। वगैरहा, वगैरहा। वैसे ही कुछ संगठन ऐसे सवाल परंपरा के तौर पर उठाते हैं। लेकिन सवाल जायज हैं या नाजायज इन्हें परखने और उनका सामाजिक-राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की •ाी जरूरत है। और इन सवालों का क्यों न बेहतर और सधा हुआ जवाब •ाी दिया जाए। इस पूरे मामले से बस मैं एक ही बात कहना चाहती हूं। इसे आगे के लिए केस स्टडी के तौर पर इस्तेमाल करें। सरकार,प्रशासन सबक के तौर पर ले। जनता के मिजाज को समझे। प्रदर्शन, विरोधों का शमन (यानी उसके कारणों को खोज कर उनका निदान करना) किया जाए न कि दमन (बलपूर्वक दबाया जाए)। और जनता •ाी सबक ले कि प्रदर्शन को असरदायक और दूरगामी बनाने के लिए उसे क्या करना चाहिए। मैं फिर कहूंगी। इस पूरे मामले में सबसे अच्छी बात यह रही कि यह किसी संस्था,संगठन से प्रेरित नहीं बल्कि स्वत:स्फूर्त था।

Thursday, December 27, 2012

हैरान हूं मैं

हैरान हूं कि तुम हैरान नहीं हो /गुस्सा हूं कि तुम्हें गुस्सा नहीं आता/ बौखलाई हूं कि तुम बौखलाए क्यों नहीं हूं / क्योंकि बलात्कार के बाद •ाी मैं जिंदा हूं /पर, क्या केवल मैं ही जिंदा हूं?

Friday, December 21, 2012

...ताकि आगे इतना दर्द न मिले

मुझे किसी ने बताया कि लड़की ने लिखकर पूछा कि क्या उन्हें सजा हुई। (यह वही लड़की है जिसके लिए 16 दिसंबर की रात •ाारी गुजरी) दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में मौत और जिंदगी के बीच झूल लड़की का यह सवाल जिसका जवाब हमें नहीं पता। क्योंकि हम नहीं जानते कि उन्हें सजा होगी या नहीं। होगी •ाी तो कितनी? क्या उस सजा से उस लड़की को तसल्ली मिलेगी? लड़की को मिली तकलीफ और उन लड़कों को मिली सजा में क्या बराबरी होगी? नहीं जानते। अचानक सोचा कि चलो दोनों की तुलना कर लें। सब साफ हो जाएगा। लड़की तो बोल नहीं सकती या झूठ •ाी बोल सकती है। डाक्टर से पूछकर सब साफ कर लेते हैं। तो आज डाक्टर ने बताया। लड़की गं•ाीर है। हम कोशिश कर रहे हैं कि वो बच जाए। लड़की •ाी जीना चाहती है। उसने ऐसा लिखकर बताया है। पर, अगर वो जी •ाी गई तो वह पूरी जिंदगी खाना मुंह से नहीं खा पाएगी। उसे पूरी जिंदगी नसों के जरिए खाना देना पड़ेगा। तो क्या, खाना तो खाती रहेगी। पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि नसों के जरिए खाना देने पर हमेशा संक्रमण होने का डर रहेगा। और जो विटामिन और दवाएं पूरी जिंदगी के लिए चाहिए वो कतई सस्ते नहीं हैं। दूसरा इस लड़की को शार्ट सिंड्रोम नाम की बीमारी होने के •ाी आसार हैं। वो क्या? इस बीमारी में कुछ खाते ही फौरन शौच के लिए जाना पड़ता है। पर ऐसा क्या हुआ। बलात्कार के समय जब लड़की ने विरोध किया तो उन लोगों ने इसके पेट में लोहे की सरिया घुसा दी। जिससे इसकी छोटी आंत बुरी तरह जख्मी हो गई थी। इसलिए उसे निकालना पड़ा। और ये जो सारी दिक्कतें हैं, छोटी आंत न होने की वजह से हैं। ऐसी जिंदगी। यानी जब उसे नसों के जरिए पोषण दिया जाएगा। हर बार उसके दिमाग में वह हादसा जरूर घूमेगा। ऐसा ही तो होता है। जब कुछ गलत घटता है तो हम उन सारी चीजों को अवाइड करते हैं। जो उस हादसे से जुड़ी हों। लेकिन वो तो चाहकर •ाी ऐसा नहीं कर पाएगी। डाक्टर ने फिर कुछ बोलने के लिए जैसे ही अपने होंठ खोले। लगा अ•ाी •ाी बाकी है, क्या? अब इसके मां बनने में •ाी कई कठिनाईयां पैदा होंगी। इसके जननांग •ाी क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। और आंत के जख्मी होने का असर •ाी इस पर पड़ेगा। अगर मां बन •ाी गई तो...बच्चा बचना बेहद मुश्किल होगा। लड़की की हालत और उसके दर्द का हिसाब किस सजा से मिलेगा? उन्हें फांसी देने से..। उनका बधियाकरण करने से। उन्हें •ाीड़ के हवाले करने से। कैसे? क्योंकि किसी •ाी सजा में उतना दर्द नहीं है, जितना उस लड़की के हिस्से आ गया है। लेकिन सजा तो जरूरी है। सख्त से सख्त। जिससे कम से कम लोग ऐसा करने से पहले सोचें। आगे किसी लड़की, बच्ची या औरत को इतना दर्द न मिले। अब और नहीं। सहानु•ाूति नहीं न्याय चाहिए।

Tuesday, November 27, 2012

कहां से लाई छुड़ौती

ह्यपति का छोडे का चाहित हव। लेकिन पैसवा नहीं हव। तब्बैं हम ई जिंदगी जिए का मजबूर हवह्ण। बनारस के चोलापुर ब्लाक, बेलापुर गांव की प्रियंका की यह बात सुनने में ले ही अजीब लगे। लेकिन यह सच है कि बिना छुड़ौती की रकम दिए वह अपने पति को नहीं छोड़ सकती है। चाहें वह अपनी शादी से खुश हो या नहीं। छुड़ौती उस रकम को बोला जाता है जो एक पक्ष दूसरे को अदा करता है। छुड़ौती ग्रामीण बनारस की प्रचलित प्रथा है। इस प्रथा के मुताबिक पति-पत्नी में से कोई एक अगर दूसरे को छोड़ना चाहे तो उसे कुछ रकम अदा करनी पड़ती है। यहां के गांवों में खासकर दलितों में यह प्रथा खासी प्रचलित है। तलाक लेने के लिए कानून का दरवाजा खटखटाना पंचायत की तौहीन मानी जाती है। ऐसे में पंचायतें ही पति-पत्नी के विवाद निपटाती हैं। पति या पत्नी किसी एक या फिर दोनों की गुहार के बाद पंचायत लगती है। सरपंच के सामने दोनों अपनी-अपनी बात रखते हैं। उसके बाद सरपंच पूछता है कि कौन किसको छोड़ना चाहता है। ऐसे में अगर पति कहता है कि वह पत्नी को छोड़ना चाहता है, तो पत्नी के पक्ष वाले रकम की मांग करते हैं। इसके उलट पत्नी छोड़ना चाहे तो पति रकम की मांग करता है। इसकी खास बात यह है गलती किसी की ी हो, लेकिन छोड़ने वाले को ही रकम चुकानी पड़ती है। बनारस के कैंट रेलवे स्टेशन से करीब 35 किलोमीटर दूर बरबसपुर में प्रियंका अपनी चाची सास के पास रहती है। इक्कीस साल की प्रियंका दलित परिवार से है। प्रियंका अपनी आप बीती कुछ ऐसे बताती हैं। चैदह बरस की रहली तब्बैं शादी हो गईल। तब पता न रहल की पति कम दीमाग हव। पियत-खात तो शुरुवै से रहले। लेकिन अब सात साल बीत गईल। का करि, कुछौ समझ मा नहीं आत हव। प्रियंका का मायका गहनी गांव कैंट से करीब सात-आठ किलोमीटर दूर आजमगढ़ रोड पर है। उसके मां-बाप भी किसी तरह से उसका पीछा उसके पति से छुड़ाना चाहते हैं। लेकिन वो बेबस हैं। प्रियंका ने बताया कि उसका पति उसे छोड़ने को राजी नहीं है। हालांकि बीस-बीस दिन तक उसका पति गप्पू उसकी खैर-खबर तक नहीं लेता। पति, सास-ससुर, जेठ-जेठानी सब थोड़ी ही दूर पर पहाड़िया गांव में रहते हैं। पहले प्रियंका भी वहीं रहती थी लेकिन वहां पर पति के रंग-ढंग ठीक नहीं थे। प्रियंका ही नहीं आस-पड़ोस के लोगों का भी कहना है कि उसके पति का किसी दूसरी औरत से संबंध है। उसके मंगलसूत्र और नाक की नथ वह पहले ही बेच चुका है। ऐसे में वह अपनी चाची सास के साथ इस आस में रहने लगी की शायद दूर रहने पर उसे उसकी याद आए। लेकिन हालात जस के तस हैं। आठवीं पास करके वह ससुराल आई थी। अब वह बीए का पहला सा पूरा कर चुकी है। मायके वालों ने जैसे-तैसे उसे पढ़ाया। पति पांचवी पास है। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। दोनों के बीच पति-पत्नी जैसा कोई संबंध नहीं है। उकताहट भारी आवाज में प्रियंका ने बताया कि महीनों हो जाते हैं गप्पू को देखे हुए। वह आता भी है तो बस बाहर-बाहर ही चला जाता है। कभी नहीं पूछता की क्या खाती हो। कैसे चूल्हा जलता है। मैं कुछ बोलूं तो बस मारने दौड़ता है। अभी तो उम्र है सो दूसरी शादी भी हो जाएगी। सात साल इंतजार किया अब अगर कोई कदम नहीं उठाया तो जिंदगी कैसे कटेगी। प्रियंका की मां पुष्पा ने बताया कि हम भी पल्ला छुड़ाना चाहते हैं। लेकिन सूझ नहीं रहा क्या करें। अगर पंचायत हमने बैठाई तो हमसे रकम की मांग होगी। कहां से लाएंगे। चार बेटियां हैं। दो की शादी किसी तरह की। अभी भी दो बची हैं। हम दोनों पति-पत्नी मजदूरी करते हैं। किसी तरह दो वक्त की रोटी जुगाड़ पाते हैं। पूछने पर उन्होंने बताया कि कम से कम सत्तर-अस्सी हजार की मांग होगी। पति गप्पू से पूछो तो साफ कह देता है। मैं अपनी तरफ से उसे नहीं छोड़ूंगा। वह चाहे तो छोड़ दे। पंचायत बैठकर हमारा फैसला कर दे। छुड़ौती देकर वह जहां चाहे जा सकती है। लड़की के ससुर लौटू भी गप्पू की हां में हां मिला रहे हैं। उनका कहना है कि बहू को चाहिए कि वह अपने पति के साथ रहे। साथ रहेगी तो वह किसी दूसरी औरत को नहीं ताकेगा। मर्द की जात है, सो उसे कुछ तो मन बहलाने को चाहिए ही। सो अगर पत्नी नहीं रहेगी तो इधर-उधर मुंह मारेगा ही। इस सवाल पर की अगर दोनों की पटती नहीं तो अलग क्यों नहीं हो जाते ये लोग। उनका भी जवाब गप्पू जैसा ही था। हम तो नहीं अलग होना चाहते। पर, प्रियंका होना चाहे तो। पंचायत करा ले। प्रियंका और उसके घरवालों को यह सलाह भी मिली कि वह कानून का दरवाजा खटखटाए। लेकिन ऐसा करना पंचायत की अवमानना होगी। छुड़ौती की रकम अगर पति अदा करता है तो वह पत्नी पक्ष से मिली दहेज के बराबर होती है। लेकिन पति किस रकम की मांग करता है?

Monday, October 29, 2012

दलित औरतों पर दोहरी मार हरियाणा में हिसार के डाबरा गांव में इन दिनों सन्नाटा पसरा है। यहां के एक दलित परिवार के मुखिया कृष्णा ने अपनी बेटी के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद अपनी जान दे दी। यह मामला अभी सुलझा भी नहीं था कि करीब के दूसरे गांव में अगड़ी जातियों के कुछ दबंगों ने तीस वर्षीय दलित महिला के घर में घुसकर दिनदहाड़े उसका बलात्कार किया। दिल्ली से सटे हुए हरियाणा में दलित महिलाओं के साथ इस तरह की घटनाएं हो रहीं हैं तो शहर से दूर ग्रामीण इलाकों में क्या हो रहा होगा इसका अंदाजा खुद ही लग जाता है? दोनों घटनाएं एक ही महीने के भीतर बेहद कम अंतर में घटी तो देश की राजधानी दिल्ली तक खलबली मच गई। लेकिन इसी बीच उत्तर प्रदेश के सीतापुर में भुदावां के पिसांवा गांव में दो औरतों का भी बलात्कार हुआ। दोनों औरतें दलित थीं लेकिन मामला इतना चर्चित नहीं हुआ, शायद इसकी वजह इस गांव का शहर से दूरदराज किसी कोने में बसे होना है।सभी मामलों में आरोपी उच्च जातियों के हैं। ये घटनाएं तो वो हैं जो जैसे-तैसे हम तक पहुंच गईं। लेकिन ज्यादातर मामले तो दबकर ही रह जाते हैं। महिलाएं और दलित दोनों ही समाज में अलग-थलग पड़े समुदाय हैं। केवल औरतों की बात करें तो समाज में इन्हें दूसरा दर्जा ही मिला है। आंकड़े भी यही कहते हैं, महिलाओं के अधिकारों के लिए काम कर रही एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘थॉमसन रायटर्स ट्रस्ट लॉ’ की इसी वर्ष आई रिपोर्ट की मानें तो पिछले साल देश में चौबीस हजार दो सौ छह बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे। इसी रिपोर्ट में दूसरा चौंकाने वाला आंकड़ा है कि जहां एक तरफ देश में स भी तरह के अपराध हर साल 16 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं वहीं महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले 31 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं। दोनों ही रिपोर्टों को जोड़कर देखें तो ‘दलित उस पर भी महिला’ होने की तस्वीर स्पष्ट होती है। जरा बात करें दलितों के लिए बने कानून की, तो 1989 में ही एससी/एसटी,अत्याचार निरोधक कानून बनाया जा चुका है। जिसमें दलितों के साथ किसी भी तरह के भेदभाव और अत्याचार करने वालों के लिए कठोर सजा तय की गई है। इसमें भी ‘दलित महिलाओं को सम्मान से जीने और सुरक्षा के अधिकार’ में रुकावट पैदा करने वाले पर अलग से कानूनी कार्रवाई करने का स्पष्ट आदेश है। इतने गं भीर मामलों में पंचायतों की क्या भूमिका यह देखना भी जरूरी है। ग्रामीण जनता के सबसे करीब प्रशासन की इकाई की बात करें तो वो हैं पंचायतें। कानूनी तौर पर पंचयातों के लिए स्पष्ट आदेश है कि गांव में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा और उनके सम्मान से जीने के अधिकार की रक्षा करना पंचायत की ही जिम्मेदारी है। लेकिन असल में पंचायतें उच्च जातियों के हाथों की कठपुतली हैं। हिसार के डाबरा गांव में दलित लड़की के साथ हुए बलात्कार के मामले को लड़की के बाप ने सबसे पहले पंचायत में ही उठाया था। लेकिन वहां से मदद मिलने की बजाए, झिड़की और चुप बैठने की सलाह मिली। नतीजा सबके सामने है। निराशा से घिरे बाप ने मौत को गले लगा लिया। बलात्कार, फिर बाप की मौत से लड़की ही नहीं पूरा दलित समुदाय दहशत में है।
अंधेरे को रोषनी का इंतजार ‘‘हमार पुरवा मा कब उजियारा होई ?’’ लगभग अधेड़ हो चुके उत्तर प्रदेष के जिला चित्रकूट के भभई गांव में चुनकी का पुरवा के मुन्नी लाल का सवाल दरअसल अधिकतर ग्रामीण आबादी का है। सरकारी आंकड़े भी देष की इस अंधेरी तस्वीर के गवाह हंै। 2011 की जनगणना के मुताबिक तकरीबन 55 प्रतिषत गांवों में बत्ती नहीं पहुंची है। देष की करीब सत्तर प्रतिषत आबादी गांवों में बसती है। और आज भी देहातों के आधे से ज्यादा घरों में कैरोसिन का दिया जलता है। मार्च, 2005 में षुरू हुई राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत पांच सालों के भीतर सौ प्रतिषत गांवों को रोषन करने की योजना बनाई गई थी। मजेदार बात यह है कि हम इसके कागजी आंकड़े भी नहीं जुटा पाए। इस योजना की सबसे बड़ी खासियत गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) और पिछड़ी जाति के लोगों को मुफ्त बिजली देना था। लेकिन इस मोर्चे पर तो हम नाकाम ही रहे। क्योंकि जिन गांवों में बिजली पहुंच भी गई है वहां की अधिकतर दलित बस्तियां अंधेरे में ही हैं। उत्तर प्रदेष के महोबा के रैपुरा कलां, छानी कलां बनारस के मेहदीगंज की मुसहर बस्ती, धरसौना, की दलित बस्ती। सूची लंबी है। कहीं खंभे हैं तो कहीं खंभे भी नहीं है। असल में सरकारी आंकड़ों में खंभे गाड़ने भर से मान लिया जाता है कि बिजली पहुंच गई है। ऐसे में बिजलीकरण से ज्यादा योजना खंभाकरण की लगती है। यानी सरकारी आंकड़ों की जमीनी स्तर पर पड़ताल करें तो यहां अंधेरा नहीं बल्कि घुप अंधेरा नजर आएगा। ये तस्वीर केवल उत्तर प्रेदेष की नहीं बल्कि देष के सभी गांवों की है। तीस जुलाई को देष के 19 राज्यों में अचानक एक साथ बिजली चली गई। इनमें से अधिकांष इलाके षहरी थे सो जमकर हो - हल्ला कटा। प्रदर्षन हुए, तोड़फोड़ हुई। सरकार हरकत में आ गई और कुछ घंटों में ही संकट खत्म हो गया। सोचो कुछ घंटों का अंधेरा षहरी जनता को बेचैन कर गया तो फिर गांवों में छाया लंबे समय से घुप अंधेरा क्या उन्हें काटने को नहीं दौड़ता होगा ?

Monday, July 30, 2012

तिवारी जी,

एन डी तिवारी बधाई हो आप बाप बन गए। आपको तो रोहित का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने 87 वर्ष की उम्र में पिता होने का एहसास करवाया। बाप बनाम बेटे की लड़ाई से एक बात तो साफ हो गई कि बाप एक नंबरी तो बेटा दस नंबरी निकला। जिद्दी बेटे ने गुरुर से भरे बाप को झुका ही दिया। हालांकि इस पूरे ड्रामें एक बात जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया वह यह कि एक बेटे ने अपनी मां का साथ ऐसे मामले में दिया जिसे अक्सर हमारे समाज में कलंक कहा जाता है। बहुत खड़ी भाषा में बोलें तो ऐसी औरत के लिए लोग अक्सर कह देते हैं कि जवानी में रंगरलियां मनाईं हैं तो अब भुगतो नतीजा। अक्सर ऐसी मां के बेटे भी अपनी मां को हो दोषी मानते हैं लेकिन यहां रोहित ने अपनी मां को इंसाफ दिलाया। एक ऐसे व्यक्ति को कठघरे में खड़ा कर दिया जो राजनीति में मजबूती के साथ स्थापित था। इस पूरी लड़ाई के दौरान रोहित को क्या-कुछ नहीं सहना पड़ा होगा? ये बताने की जरूरत नहीं है। परिवार, दोस्तों और समाज से उसे कई तरह के ताने मिले होंगे। हालांकि अगर ढूढ़ां जाए तो ऐसी कई कद्द्दावर शख्सियतें होंगी जो कई बेटे-बेटियों के जैविक पिता या हो सकता है कि ऐसी मांएं भी हों। लेकिन उनके खिलाफ लड़ने की हिम्मत किसी में भी नहीं होती। उज्जवला को फक्र होगा कि उसने रोहित को पैदा किया। तिवारी जी गुस्सा तो बहुत आ रहा होगा। लेकिन आप कर भी क्या सकते हैं निगोड़ी विज्ञान ने आपका भांडाफोड़ कर दिया। पर अब इतनी छीछालेथन के बाद जब आप बाप बन ही गए हैं तो सरेआम आकर मान लीजिए, गल्तियां किससे नहीं होती? बधाई हो रोहित और उससे भी ज्यादा। बधाई हो उज्जवला को जिसने रोहित जैसा बेटा पाया

Wednesday, July 25, 2012

मर्द की बपौती है, रासलीला

पिछले दो दिनों से मैं लगातार एक सवाल से जूझ रही हूं कि आखिर परंपराओं को निभाने और संस्कृति को कायम रखने का जिम्मा स्त्री का ही क्यों है? पुरुष और स्त्री के चरित्र की बात करते वक्त हम अलग-अलग चश्मा क्यों पहन लेते हैं? एक स्त्री अपने मनमुताबिक जिंदगी जीती है तो समाज उसे नामंजूर कर देता है। रासलीला तो कान्हा करते थे, राधा नहीं। मतलब रासलीला मर्द की बपौती है, औरत तो मीरा, सीता या फिर राधा हो सकती है। हालांकि यहां समाज भी दो हिस्सों में बंटा है। एक समाज वो जो उसी औरत के बिंदास और बेबाक रवैए का लुत्फ उठाता है। यह होता है युवा समाज, बुड्ढा समाज भी, अधेड़ समाज भी। इस समाज में केवल महिलाएं और अधिकांश बच्चे नहीं होते। और दूसरा समाज जिसमें इन सबके अलावा हर उम्र और वर्ग की महिलाएं भी शामिल होती हैं। यह समाज औरत के इस खुलेपन को परंपरा और संस्कृति के खिलाफ समझता है। चुभने वाली बात तो यह है कि वह पुरुष समाज भी इस तथाकथित पारंपरिक समाज की राय को पुख्ता करता है जो उस महिला के खुलेपन का केवल साझीदार होता है। जब खुलेपन की बात करते हैं तो कपड़े पहनने से लेकर मौज-मस्ती और खासतौर पर स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक संबंधों को शामिल किया जाता है। वैसे तो हमेशा से ही मेरे भीतर यह सारे सवाल सुलगते रहते हैं, लेकिन होमी अदजानिया द्वारा निर्देशित फिल्म ‘कॉकटेल’ को देखने के बाद तो इन सवालों से मानों लपटें सी उठनी लगीं हैं। कहानी अच्छी थी या बुरी। यह फिल्म समीक्षकों की चिंता है। लेकिन मैं बस फिल्म के तीन पात्र वेरोनिका, मीरा और गौतम की बात करूंगी। वेरोनिका बिंदास, अत्याधुनिक खुले विचारों वाली लड़की, जो कपड़ों को लेकर परंपरावादी नहीं है। जहां तक स्त्री-पुरुष के संबंध हैं उनमें बेहद खुली हुई। सेक्स उसके लिए रोजमर्रा की चीज है। गौतम भी बिल्कुल वैसा ही है। दोनों में खूब पटती है। दोनों अच्छे दोस्त हैं। साथ रहते हैं। दोनों एक बराबर बिस्तर साझा करते हैं। दोनों शादी को बोरिंग समझते हैं। परिवार उन्हें ऊबाता है। मतलब दोनों एक दूसरे का वाइस वर्सा हैं या कहें कि वेरोनिका और गौतम को अगर एक दूसरे से बदलें तो बस फर्क केवल औरत और मर्द होने का होगा। वहीं दूसरी तरफ मीरा परंपरावादी, संस्कृतिवान, ढकी-मुदी। उसके लिए परिवार घर ही सब कुछ है। शादी उसके लिए एक सलोना सपना है। यानी बिल्कुल वैसी जैसी कि भारतीय समाज में आम तौर पर लड़कियां होती हैं। कुछ भी अलग नहीं। लेकिन वेरोनिका की एक और खास बात है जो न तो गौतम में है और न हीं मीरा में। उसमें निर्णय लेने की क्षमता गजब की है। वह एक अनजान लड़की मीरा को अपने घर लेकर आती है। बगैर किसी स्वार्थ उसे अपने साथ अपनी खास सहेली की तरह रखती है। उसके आंसू पोछती है। खासकर फिल्म का वह संवाद जब मीरा वेरोनिका का खाली दूध का गिलास उससे मांगती है तब वह कहती है कि तुम नौकर नहीं हो जो.. लेकिन निर्देशक और उससे भी ज्यादा दर्शकों और समीक्षकों ने इस पूरे हिस्से को हासिए पर ही ला दिया। क्यों? क्या चरित्र को ठोस आधार देने में यह वाकया भी दर्ज नहीं होना चाहिए। यह किरदार को अन्य दो किरदारों के सामने बेहद भारी बनाता है। लेकिन आखिर में गौतम मीरा को चुनता है। मीरा भी गौतम के प्यार में गिरफ्तार हो जाती है। वेरोनिका रोती बिलखती है और फिर वह खुशी-खुशी उन दोनों की जोड़ी बना देती है। मतलब वेरोनिका स्त्री सो उसे परंपराएं तोड़ने और संस्कृति को बर्बाद करने की सजा और गौतम पुरुष सो उसे तो मिला मजा। यानी वेरोनिका और मीरा दोनों। और मीरा जो वेरोनिका की सबसे अच्छी दोस्त वह भी गौतम को खुली बाहों से अपनाती है। क्योंकि मर्द करे तो रासलीला, औरत करे तो कैरेक्टर ढीला। दुहाई है ऐसे समाज की और बलिहारू जाऊं मीरा की जो गौतम के चरित्र को अनदेखा कर उसे देवता बनाकर अपने मनमंदिर में स्थापित करती है।

Tuesday, April 17, 2012

कोलकाता की ‘हिटलर दीदी’

पश्चिम बंगाल की ममता दीदी इन दिनों पूरे देश की सुर्खियां बटोर रही हैं। केंद्र की सियासत में तो गाहे बगाहे अपना रुतबा दीखा ही देती हैं, इसके इतर राज्य में भी उनके फैसले चर्चा का विषय बने हुए हैं। अब देखिए न हालिया फरमान उनका सख्त होने के साथ ही रोचक भी है। उन्होंने कहा है कि उनकी पार्टी यानी तृणमूल के किसी भी कार्यकत्र्ता का संबंध किसी भी स्तर पर उनकी धुर विरोधी पार्टी सीपीएम से नहीं होना चाहिए। तृणमूल की नेता एवं खाद्य आपूर्ति मंत्री ज्योतिप्रिय मलिक ने दीदी के संदेश को कुछ इस तरह से पहुंचाया। ‘सीपीएम के साथ किसी भी तरह की रिस्तेदारी न बनाएं। यदि आप विरोधी पार्टी के किसी नेता से चाय की दुकान पर भी मिलते हैं तो उनसे बातचीत मत करिए। हमने सीपीएम के सामाजिक बहिष्कार की कसम खाई है। आपको यकीन दिलाना होगा की आप हमारी विपक्षी पार्टी के किसी नेता के परिवार से अपने परिवार के किसी व्यक्ति का वैवाहिक संबंध भूलकर भी नहीं होने देंगे।’ मेरी चिंता तो केवल इतनी है कि अगर दोनों परिवारों के बच्चों के बीच इश्क-विश्क का चक्कर चल गया तो फिर क्या होगा? खैर अब पार्टी कार्यकत्र्ता अपने बच्चों को पार्टी प्रमुख की हिदायत से वाकिफ करा ही देंगे। चिंता ये भी है कि सीपीएम पार्टी कार्यकत्र्ता और तृणमूल के लोगों को बीच अगर पहले से ही कोई संबंध हुआ तो? शायद ऐसा होने पर संबंध विच्छेद करने की हिदायत दी जाएगी। इन दिनों एक टीवी सीरियल काफी चर्चि हो रहा है, हिटलर दीदी। हो सकता है उसे दीदी से ही प्रेरणा मिली हो। यह मेरे निजी विचार हैं और अक्सर जैसा होता आया है कि निजी विचार में तथ्यों की जगह आत्मनिष्ठता हावी रहती है। उनके इस तुगलकी फरमान से साफ हो गया है कि दीदी के दामन को पकड़कर राजनीति करने के इच्छुक लोगों को दीदी के द्वारा बनाए गए दायरे तक ही सीमित रहना होगा। हाल ही में कोलकाता में एक और घटना घटी। जिसने ममता को कठोर होने पर मजबूर कर दिया। जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ने ममता दी के कुछ काटरून नेट पर डाल दिए। बस क्या था दी के कार्यकत्र्ताओं ने कर दी पिटाई। खैर, पुलिस ने दोनों को पकड़कर सलाखों के पीछे डाल दिया। अब वो बात अलग है कि कार्यकत्र्ता 500-500 का मुचलका देकर बरी हो गए। और बेचारे प्रोफेसर साहब को पूरी रात जेल में काटनी पड़ी। लोग उनकी आलोचना कर रहे हैं कि दीदी तानाशाह हो गई हैं। लेकिन मेरा मानना कुछ और ही है। दरअसल दीदी लोकतंत्र का दायरा बनाने की कोशिश कर रही हैं। समाज में बराबरी लाने के लिए प्रयासरत हैं। तभी तो प्रोफेसर और उन्हें पीटने वाले कार्यकत्र्ता दोनों पकड़े गए। छोड़ने का वक्त अलग-अलगा था तो क्या? इतना तो चलता है। उनके साथ ट्रीटमेंट भी अलग हुआ होगा। इतना भी चलता है। दूसरी तरफ दीदी का एक और फैसला जो लोकतंत्र के हिमायतियों को कुछ अखर रहा है वो ये कि उन्होंने कार्ल मार्क्‍स को स्कूली पाठ्यक्रम से हटाने का प्रस्ताव रखा है। यहां भी दीदी का सोचना शायद यह हो की स्कूली बच्चों के मन मस्तिष्क में किसी भी विपरीत चिंतन के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। अब मार्क्‍स को पढ़ेंगे तो समाज के वर्गो में द्वंद्व पैदा होगा। जो कि विकास के लिए ठीक नहीं है। अब दीदी बड़ी हैं जो सोचा होगा समझकर ही सोचा होगा। दिनेश त्रिवेदी का मामला भी सबको पता ही है। नौ साल बाद किराया बढ़ाने पर उन्हें पद छोड़ना पड़ा।

Saturday, March 24, 2012

बर्फ पिघलने की कामना...

खुशकिस्मत है वो सास जिसे अच्छी बहू मिल जाए। इस मामले में मेरी किराएदारिन बड़ी भाग्यशाली हैं। एक तो बहू कमाऊ है ऊपर से स्वाभाव भी बहुत अच्छा है। आज ही सुबह मिली तो कह रही थी आंटी बस अब कुछ दिन ही तो आपके साथ हैं। डेढ़ करोड़ की कोठी खरीदी है। खरीदें भी क्यों न लड़का-बहू दोनों कमाऊ हैं। पति की अच्छी खासी जॉब है। अपने लड़के के लिए मैं बस ऐसी ही बहू चाहती हूं। दरअसल बस में बैठी तीन महिलाएं बहू चर्चा में तल्लीन थीं। तीनों संभ्रांत परिवार से थीं। उनमें से एक महिला जो कुछ अधेड़ थी, ने अपने लिए बिल्कुल वैसी ही पुत्र वधू की कामना की जैसी उनकी किराएदारिन की है। अंतिम वाक्य पूरा करते-करते उनकी सांस कुछ लंबी और आंखें ऊपर को हो गईं थीं। मानों ईश्वर से किसी गंभीर वरदान की कामना कर रही हों। अब स्पष्ट ये नहीं था कि बहू का सीधा-सरल स्वाभाव संभावित सास को भाया या उसके ऊंचे ओहदे की नौकरी। हो सकता है दोनों का मिला-जुला असर हो। पर सुकून वाली बात यह है कि चिरकाल से सास रूपी प्रजाति और बहू रूपी प्रजाति के बीच जारी शीत युद्ध में कुछ गर्माहट का एहसास हुआ। लगता है दोनों के बीच जमीं बर्फ पिघलने लगी है। ईश्वर करे कि इन तीन महिलाओं की बात दूर तलक जाए। हर सास के जहन में उतरे और इस रिस्ते में मिसरी घोले। संभावित बहू होने के नाते मेरा भी दायित्व बनता है कि मैं अपनी प्रजाति के बीच इस संदेश को फैलाऊं। और बताऊं कि सांसे अब बहुओं पर शासन नहीं बल्कि उनसे सामंजस्य बनाना चाहती हैं। उन तीनों में से एक महिला जो बामुश्किल तीन-चार साल पहले ही बहू बनीं थी। इस चर्चा में उसकी टिप्पणी भी दर्ज करने लायक है। मेरी सास और मेरे बीच में कभी कोई खटर-पटर नहीं होती। जब मम्मी गांव चली जातीं हैं तो मैं तो बिल्कुल परेशान हो जाती हूं। ये तो सारा दिन बाहर रहते हैं और मैं अकेली खटती रहती हूं। मम्मी से बड़ा सहारा है। बेटे की देखभाल भी बिल्कुल अच्छी तरह होती है। अब यहां भी वही सवाल उठता है जो ऊपर उठा था कि मम्मी के काम का सहारा है या फिर मम्मी का साथ सुहाता है। लेकिन बात जो भी हो यह टिप्पणी दुनिया के सबसे ज्यादा चर्चित रिस्ते के लिए बेहद अहम है, क्योंकि यह बयान आधिकारिक तौर पर उस महिला ने दिया जो हालिया बहू बनी है और उसके सास बनने की पृष्ठभूमि बन चुकी है। क्योंकि उसके बेटा हो चुका है। तीसरी महिला निर्विकार भाव से दोनों को सुन रही थी। मानों इस ऐतिहासिक बदलाव की प्रत्यक्षदर्शी बन कर इतिहास के पन्नों में दर्ज होना चाहती हो। और मैं सोच रही थी, पर्यावरण के लिहाज से भले ही ग्लेशियरों का पिघलना खतरनाक हो। कई सारी आपदाओं को न्यौता हो। लेकिन इस संबंध में अब गर्माहट आना बेहद जरूरी है। दोनों पक्षों के मन में बन चुके ग्लेशियर जितनी जल्दी पिघलें उतना अच्छा होगा। व्यक्ति, घर, परिवार और समाज के लिए।

Thursday, February 2, 2012

घूरते भूखे बच्चे

एक बच्चे का घूरना मुङो अंदर तक झकझोर गया। मेरा गुनाह था कि मैंने उसे भीख देने से मना कर दिया था। कृशकाय वाला वह बच्च उघारा था। उसने मुझसे दो-एक रुपए की उम्मीद लगाई थी। लेकिन मैंने उसे भीख नहीं दी। क्योंकि इससे पहले मैं एक ऐसे ही बच्चे को एक सिक्का थमा चुकी थी। दरअसल हाल ही में अपनी मां को लेने मैं निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुंची। समय पता किया तो गाड़ी तय समय से तकरीबन डेढ़ घंटे देर से आनी थी। मेरे घुमक्कड़ी मन ने वहां ठहरना मंजूर नहीं किया। और मैं निकल पड़ी आसपास का जायजा लेने। प्यास लगी सो पानी की बोतल लेने एक पुराने से होटल में पहुंची। पैसे निकाले ही थे कि एक बच्चे ने आकर मुङो हल्के से छुआ। मैं घूमी तो बच्चे ने मुङो उम्मीद भरी नजरों से देखा। पहले तो मैंने उसे नजरअंदाज करना चाहा। तर्क था कि भीख को बढ़ावा देना गुनाह है। कुछ देर ठिठकी। लेकिन उस नंगेबदन बच्चे को देखकर न जाने क्यों सिहरन से पैदा हुई। मेरे भीतर के तार्किक इंसान पर मेरे ही भीतर का दयालू इंसान हावी हो गया। उस वक्त मुङो पता चला कि वाकई हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी। और मैंने उसे दो रुपए का सिक्का दे दिया। अभी बोतल हाथ में आई भी नहीं थी कि एक दूसरे बच्चे ने मुङो हिलाया मानों कह रहा हो कि 15 रुपए बर्बाद न करो। होटल के बाहर हैंडपाइप से पानी पी लो। क्या बिगड़ जाएगा? हालांकि उसने केवल मुङो हिलाया भर था, कहा कुछ भी नहीं था। पर न जाने क्यों उसे देखते हुए ये सब बातें मेरे मन में आ गईं। मैंने उसे अनदेखा करना चाहा तो उसने मुङो फिर हिलाया। और कहा, भूख लगी है। उसने भी कपड़े नहीं पहने थे, दुबले-पतले से उस बच्चे को देखकर मुङो उसकी बात पर यकीन करने का मन कर रहा था। लेकिन बोतल लेकर मैंने अपना रास्ता पकड़ा और निकल ली। पीछे घूमकर देखा। या उस बच्चे की घूरती हुई आंखों ने मुङो बरबस ही पलटने पर मजबूर किया। पहले जो बच्च याचक नजर आ रहा था अब वह कुछ उग्र था। उसने मुङो हिकारत भरी नजरों देखा और कुछ गालियों जैसा ही दिया। मैंने पानी पीने के लिए बोतल खोली तो लगा वह बच्च फिर मुङो झकझोर रहा है कि लानत है तुम पर। अब मैं स्टेशन पहुंच चुकी थी, मैं। मम्मी का फोन आया कि कहां हो बिटिया मैं पहुंच गई हूं। मैंने उन्हें रिसीव किया। मम्मी के आने की खुशी में मैं सबकुछ भूल चुकी थी। उनकी विशेष फरमाइश पर हाल ही में उन्हें मैं कालकाजी मंदिर ले गई वहां पर भी ऐसे ही बच्चे ने मम्मी का पल्लू खींचा। पर मम्मी पूरे इंतजाम से गईं थीं उन्होंने कुछ सिक्के निकाले चार-पांच बच्चों को बांट दिए। उन बच्चों को देखते ही मुङो दोबारा उस घूरने वाले बच्चे की याद आ गई। उसकी आंखों से आंखे मिलाना मेरे बस की बात नहीं थी सो मैंने अपनी निगाह नीची कर ली। हाल ही में भूख और कुपोषण पर जारी एक रिपोर्ट के आंकड़े देखकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आंखे भी शर्म से नीचे हो गइर्ं। दरअसल रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों की मानें तो आज भी देश में 42 फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। सिंह ने बयान दिया कि यह तो ‘राष्ट्रीय शर्म’ की बात है। हालांकि उन्हें कितनी शर्म आई इसका आंकलन लगाना मुश्किल है। यह तो राष्ट्रीय रिपोर्ट थी सो शर्म भी राष्ट्रीय थी। एक और रिपोर्ट हाल ही में आई पर यह अंतरराष्ट्रीय थी ‘द इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस सोसाइटीज’ द्वारा जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की 15 फीसदी आबादी भूखी है। इस विश्वव्यापी भूख को देखकर मुङो लैंगस्टन ह्यूज की कविता ‘भूखे बच्चे से ईश्वर’ की याद आ गई। जिसमें ईश्वर की व्यवस्था पर ही करारी चोट की गई है। ईश्वर भूखे बच्चे से कह रहा है कि मैंने यह दुनिया तुम्हारे लिए नहीं बनाई/ तुमने मेरी रेलवे में पूंजी नहीं लगाई/मेरे निगमों में पैसा नहीं लगाया / कहां हैं स्टैण्डर्ड आयल के शेयर तुम्हारे? मैंने अमीरों के लिए बनाई है यह दुनिया/ और उनके लिए जो अमीर होने वाले हैं/ और उनके लिए जो हमेशा से रहे हैं अमीर/ तुम्हारे लिए नहीं, भूखे बच्चे। लब्बोलुआब यह है कि यह दुनिया अमीरों के लिए है, किसी भूखे बच्चे या गरीबों के लिए नहीं। अब मुङो लगता है कि मेरी व्हिसलरी पर उस बच्चे का घूरना सही था। मेरा गुनाह था कि उस भूखे बच्चे के सामने मैंने 15 रुपए उस पानी में बहाए, जिसे मैं हैंडपम्प से मुफ्त में पा सकती थी। उस बच्चे के घूरने का मतलब था कि उसकी या यों कहें कि भूखे बच्चों की अदालत में मैं गुनहगार हूं। और अब मैं उस गुनाह को कबूल करती हूं।

घूरते भूखे बच्चे

एक बच्चे का घूरना मुङो अंदर तक झकझोर गया। मेरा गुनाह था कि मैंने उसे भीख देने से मना कर दिया था। कृशकाय वाला वह बच्च उघारा था। उसने मुझसे दो-एक रुपए की उम्मीद लगाई थी। लेकिन मैंने उसे भीख नहीं दी। क्योंकि इससे पहले मैं एक ऐसे ही बच्चे को एक सिक्का थमा चुकी थी। दरअसल हाल ही में अपनी मां को लेने मैं निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुंची। समय पता किया तो गाड़ी तय समय से तकरीबन डेढ़ घंटे देर से आनी थी। मेरे घुमक्कड़ी मन ने वहां ठहरना मंजूर नहीं किया। और मैं निकल पड़ी आसपास का जायजा लेने। प्यास लगी सो पानी की बोतल लेने एक पुराने से होटल में पहुंची। पैसे निकाले ही थे कि एक बच्चे ने आकर मुङो हल्के से छुआ। मैं घूमी तो बच्चे ने मुङो उम्मीद भरी नजरों से देखा। पहले तो मैंने उसे नजरअंदाज करना चाहा। तर्क था कि भीख को बढ़ावा देना गुनाह है। कुछ देर ठिठकी। लेकिन उस नंगेबदन बच्चे को देखकर न जाने क्यों सिहरन से पैदा हुई। मेरे भीतर के तार्किक इंसान पर मेरे ही भीतर का दयालू इंसान हावी हो गया। उस वक्त मुङो पता चला कि वाकई हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी। और मैंने उसे दो रुपए का सिक्का दे दिया। अभी बोतल हाथ में आई भी नहीं थी कि एक दूसरे बच्चे ने मुङो हिलाया मानों कह रहा हो कि 15 रुपए बर्बाद न करो। होटल के बाहर हैंडपाइप से पानी पी लो। क्या बिगड़ जाएगा? हालांकि उसने केवल मुङो हिलाया भर था, कहा कुछ भी नहीं था। पर न जाने क्यों उसे देखते हुए ये सब बातें मेरे मन में आ गईं। मैंने उसे अनदेखा करना चाहा तो उसने मुङो फिर हिलाया। और कहा, भूख लगी है। उसने भी कपड़े नहीं पहने थे, दुबले-पतले से उस बच्चे को देखकर मुङो उसकी बात पर यकीन करने का मन कर रहा था। लेकिन बोतल लेकर मैंने अपना रास्ता पकड़ा और निकल ली। पीछे घूमकर देखा। या उस बच्चे की घूरती हुई आंखों ने मुङो बरबस ही पलटने पर मजबूर किया। पहले जो बच्च याचक नजर आ रहा था अब वह कुछ उग्र था। उसने मुङो हिकारत भरी नजरों देखा और कुछ गालियों जैसा ही दिया। मैंने पानी पीने के लिए बोतल खोली तो लगा वह बच्च फिर मुङो झकझोर रहा है कि लानत है तुम पर। अब मैं स्टेशन पहुंच चुकी थी, मैं। मम्मी का फोन आया कि कहां हो बिटिया मैं पहुंच गई हूं। मैंने उन्हें रिसीव किया। मम्मी के आने की खुशी में मैं सबकुछ भूल चुकी थी। उनकी विशेष फरमाइश पर हाल ही में उन्हें मैं कालकाजी मंदिर ले गई वहां पर भी ऐसे ही बच्चे ने मम्मी का पल्लू खींचा। पर मम्मी पूरे इंतजाम से गईं थीं उन्होंने कुछ सिक्के निकाले चार-पांच बच्चों को बांट दिए। उन बच्चों को देखते ही मुङो दोबारा उस घूरने वाले बच्चे की याद आ गई। उसकी आंखों से आंखे मिलाना मेरे बस की बात नहीं थी सो मैंने अपनी निगाह नीची कर ली। हाल ही में भूख और कुपोषण पर जारी एक रिपोर्ट के आंकड़े देखकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आंखे भी शर्म से नीचे हो गइर्ं। दरअसल रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों की मानें तो आज भी देश में 42 फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। सिंह ने बयान दिया कि यह तो ‘राष्ट्रीय शर्म’ की बात है। हालांकि उन्हें कितनी शर्म आई इसका आंकलन लगाना मुश्किल है। यह तो राष्ट्रीय रिपोर्ट थी सो शर्म भी राष्ट्रीय थी। एक और रिपोर्ट हाल ही में आई पर यह अंतरराष्ट्रीय थी ‘द इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस सोसाइटीज’ द्वारा जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की 15 फीसदी आबादी भूखी है। इस विश्वव्यापी भूख को देखकर मुङो लैंगस्टन ह्यूज की कविता ‘भूखे बच्चे से ईश्वर’ की याद आ गई। जिसमें ईश्वर की व्यवस्था पर ही करारी चोट की गई है। ईश्वर भूखे बच्चे से कह रहा है कि मैंने यह दुनिया तुम्हारे लिए नहीं बनाई/ तुमने मेरी रेलवे में पूंजी नहीं लगाई/मेरे निगमों में पैसा नहीं लगाया / कहां हैं स्टैण्डर्ड आयल के शेयर तुम्हारे? मैंने अमीरों के लिए बनाई है यह दुनिया/ और उनके लिए जो अमीर होने वाले हैं/ और उनके लिए जो हमेशा से रहे हैं अमीर/ तुम्हारे लिए नहीं, भूखे बच्चे। लब्बोलुआब यह है कि यह दुनिया अमीरों के लिए है, किसी भूखे बच्चे या गरीबों के लिए नहीं। अब मुङो लगता है कि मेरी व्हिसलरी पर उस बच्चे का घूरना सही था। मेरा गुनाह था कि उस भूखे बच्चे के सामने मैंने 15 रुपए उस पानी में बहाए, जिसे मैं हैंडपम्प से मुफ्त में पा सकती थी। उस बच्चे के घूरने का मतलब था कि उसकी या यों कहें कि भूखे बच्चों की अदालत में मैं गुनहगार हूं। और अब मैं उस गुनाह को कबूल करती हूं।

Saturday, January 14, 2012

सर्दियों में चुनावी सरगरमी

कड़ाके की सर्दी में हिलने-डुलने का मन नहीं करता। रात को एक बार रजाई में घुसे की फिर सुबह ही उठते हैं, घर से निकलना मानों सजा मालूम देता है। पर नौकरी पर तो जाना ही है, सो हिम्मत बांधकर शरीर को कपड़ों से लादकर निकलते हैं। लेकिन उत्तरप्रदेश में चुनावी चकल्लस ने इस बार की सर्दियों को गरम कर दिया है। जनता ऊहापोह में है कि मोहर किस पर लगाएं। अबकी किसे आजमाएं। उधर नेताओं की पेशानी पर भी बल पड़े हैं। कोई पार्टी अपना दागी नेताओं को निकाल कर अपना दाम साफ कर रही है तो कोई दल जातिगत समीकरण समीकरण को पुष्ट करने के लिए दरबदर किए इन नेताओं को गले लगा रहा है। कुल मिलाकर अफरा-तफरी का माहौल है। दल बदल-बदलकर नेतागिरी करने में पारंगत नेता इस बार भी अपना राजनीतिक धर्म निभा रहे हैं। सियासी चौसर में किसकी शह और किसकी मात होगी। कहना मुश्किल है। हालांकि चुनावी विशेषज्ञ भी अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ा रहे हैं। हालांकि पिछली बार के उत्तरप्रदेश के चुनावी नतीजों ने सबका गणित बिगाड़कर रख दिया था। मुद्दों की राजनीति तो कब की गुम हो गई है सो दलबदलू नेताओं को किसी भी दल में ठौर ढूंढ़ने में कोई संकोच नहीं होता। जहां कहीं भी मौका मिले, बस लपक लो। वैसे भी दलबदलुओं की खोजी नजर पैदा हुई गुंजाइशों को फौरन ताड़ लेती है। उधर पार्टियां भी ऐसे बिन पैंदी के लोटाओं की तलाश में रहती हैं जिन्हें केवल नेतागिरी करनी है, किसी भी पार्टी का बैनर उठाने में कोई परहेज नहीं होता। हर बार की तरह इस बार भी कुछ ऐसे ही दलबदल चल रहा है। ताजा मामला बाबू सिंह कुशवाहा का है। बसपा से कई आरोपों के चलते निकाले गए कुशवाहा को भाजपा ने लपक लिया। भाजपा की मंशा तो उनके जरिए पिछड़ा वर्ग की राजनीति चमकाने की थी लेकिन दांव उलटा पड़ गया और उनकी दागदार छवि की वजह से हंगाम बरप गया। पार्टी में ही दो धड़े हो गए। इतना हल्ला मचा कि भाजपा को फिलहाल उनकी सदस्यता स्थगित करनी पड़ी। लेकिन बसपा से दरबदर किए गए बादशाह सिंह और दद्दन मिश्र भाजपा उम्मीदवार हैं। अवधेश वर्मा पंचायत चुनाव में काफी कुख्याति बटोर चुके हैं। अपने परिवार के लोगों को जिताने के लिए विरोधियों का अपहरण करवाने से भी नहीं चूके थे। गौर करने की बात है कि उस वक्त भाजपा ने इस पर खूब चीख-पुकार की थी। लेकिन अब हाथी की पीठ से उतरकर ये लोग कमल की छांव में आ गए हैं। मुख्तार अब्बास नकवी वैसे ही पार्टी को गंगा का दर्जा दे चुके हैं लिहाजा किसी भी दागदार दामन को वो अपने में समाहित करने में सक्षम है। अब बात करें समाजवादी पार्टी की तो भले ही उन्होंने डीपी यादव को अपनी पार्टी में न लिया और अपने प्रवक्ता मोहन सिंह को पार्टी से बर्खास्त कर दिया हो लेकिन फैजाबाद में शशि-कांड में लिप्त रहे सजा उम्रकैद की सजा काटने वाले आनंद सेन के पिता मित्रसेन यादव सपा के उम्मीदवार हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि पुत्र के आरोपों को यह कहते हुए खारिज किया जा सकता है कि अब बेटा नालायक निकल गया तो क्या करें? हमें तो मतलब उम्मीदवार से है लेकिन मित्रसेन भी कबूतरबाजी के मामले आरोपित रहे हैं। जेल के जिंगलों के पीछे सजा काट चुके सजा काट चुके भगवान शंकर शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित की यह सजा एक छात्र के अपहरण कर बलात्कार का मामले में मिली थी। ये भी सपा के उम्मीदवार हैं। हालांकि जब सपा, भाजपा, बसपा और कांग्रेस का दामन साफ नहीं है तो फिर आरएलडी की बिसाद ही क्या है। लेकिन जब चर्चा निकली है तो जिक्र तो होगा ही सिखों पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले हाजी याकूब कुरैशी का आरएलडी ने खुली बाहों से स्वागत किया। कुरैशी ने पैगंबर का काटरून बनाने वाले काटरूनिस्ट का सिर कलम करने वाले के लिए इनाम की घोषणा की थी। इन्हें बसपा से निकाला गया था। पूर्व बसपा विधायक शाहनवाज राणा जिन पर लड़कियों की किडनैपिंग और छेड़छाड़ का मामला था उन्हें भी बसपा में शरण मिल गई। आरएलडी की महासचिव और पूर्व मंत्री अनुराधा चौधरी की पार्टी से नहीं निभी तो वो सपा में आ गई हैं।

मां की नाभिनाल से जुड़े हम

सुबह-सुबह उठो! अक्सर देर से ही उठ पाती हूं। रात को देर से जो सोती हूं। दिनचर्या बिल्कुल बर्बाद हो गई है। पढ़ती हूं, नौकरी करती हूं। खाना बनाती हूं। दोनों वक्त का न सही। खाने में कई बार मैगी, पोहा और ब्रेड होता है। कपड़े धुलती हूं। जब सारे गंदे हो जाते हैं। एक-एक कर धुलती हूं। मतलब वो सारा काम करती हूं जो मेरी मां मेरे लिए करती थी। लेकिन बेसलीका होकर। ठंड में घर से निकलती हूं, गरम कपड़े पहनकर। पर कोई पीछे से आकर मेरा मफलर मुङो जबरदस्ती नहीं थमाता।
जब से नौकरी करने आई हूं ऐसे ही दिन कट रहे हैं। अलसी के लड्डू हालांकि मां घर से बनाकर सर्दी शुरू होने से पहले ही भेज देती हैं, लेकिन वो डिब्बे में रखे-रखे ही फेंक दिए जाते हैं। उनका स्वाद मुङो नहीं जंचता। लेकिन मां तो हाथ में थमाती थी जबरदस्ती खिलाती थीं। और प्यार से बोलती थीं कि सर्दी बहुत है। अलसी गरम होती है। मेवे के लड्डू, शुद्ध देशी घी में बने भी भेजती हैं, उनका स्वाद जंचता है, पर दफ्तर की हड़बड़ में कभी-कभार ही इन्हें खाने का ध्यान आता है। फोन पर वो मुङो बार-बार कहती हैं कि बिटिया सर्दी बढ़ गई है। कान ढककर रहना। दफ्तर से जल्दी आ जाया करो। दो बादाम भिगो दिया करो और सुबह खा लिया करो। मैं झल्लाकर बोलती हूं कि इतना वक्त मेरे पास नहीं होता। और दफ्तर कोई मेरे चाचा का है जो ठंड लगे तो भाग आओ। वो बुरा नहीं मानतीं और अपनी गरज जताते हुए फिर मुझसे कहती हैं। अरे बिटिया तुम जब रात में खाना खाया करो तो उसी वक्त एक कटोरी में बादाम भिगो दो और जब चाय बनाने जाओ तो खा लिया करो। अब मैं पिघल जाती हूं और कहती हूं कि अच्छा ठीक है खा लूंगी। और फिर सोचती हूं कि मां तो बुजुर्ग हैं उनका ख्याल कौन रखता होगा। मैं दोबारा शाम को फोन करती हूं उनसे पूछती हूं आप बादाम खाती हो? लड्डू तो बनाए हैं न अपने और पापा के लिए। वो मेरी बात को अनसुना कर फिर से वही राग अलापती हैं, तुम घर नहीं पहुंची अभी तक? बिटिया छुट्टी लेकर आ जाओ, बहुत ठंडी है। मुङो पता है कि वो सारी हिदायतें जो मां मुङो देती हैं वो खुद नहीं मानतीं। आज जब मैं फौजिया अबू खालिद की कविता ‘नाभि नाल पढ़ रही हूं तो मुङो मेरी मां याद आ रही है, फौजिया कहती हैं मेरी मां ने रेगिस्तान से एक डोर खींची रेत की /और उसे नत्थी कर दिया मेरी नाभि से/चाहे जितनी दूर चली जाऊं मैं/उस बाल्टी की तरह होती हूं/जो बेमतलब ही कोशिश किए जा रही है/कुएं के गहरे पानी में झलकते चांद को उठाने की। कुछ ऐसा ही आज मुङो लग रहा है जब दूर उनसे परदेस में सालों से अपने स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश में भटक रही हूं। बचपन में जो जिस नाभि नाल से मैं मां से जुड़ी थी।
जन्म लेते वक्त दायी ने उसे काट दिया था लेकिन हकीकत में वो नाल कोई काट नहीं सकता। या कि डरती हूं उस नाल के कटने से। दूर सही पर सुकून है मेरी मां तो है। उनके बूढ़े हाथ किसी भी बला से बचाने में मुङो सक्षम नजर आते हैं। जब मैं रोज की जद्दोजहद से तंग आ जाती हूं। उदास होकर उनसे अपनी थकान साझा करती हूं तो वो बेहद दृढ़ होकर मुझसे कहती हैं कि मुङो पता बिटिया तुम बहुत तरक्की करोगी। मेरा आशीष तुम्हारे साथ है। एक दिन तुम अपनी मंजिल जरूर पाओगी। मुङो भरोसा है और मेरी थकान छू-मंतर हो जाती है। मैं फिर जुट जाती हूं अपने काम में। मुङो खुद पर नहीं उनके भरोसे पर भरोसा होता है। कल रात मेरी दोस्त की मां का फोन आया था, मैं उससे तस्दीक की कि क्या तुम्हारी मां भी वही सब बोलती हैं जो मेरी मां कहती हैं। मुङो अचम्भा हुआ कि उसकी मां बिल्कुल मेरी मां जैसी ही हैं, उन्हें भी चिंता सताती है कि उनकी बेटी को ठंड न लग जाए, वो भी उसे बार-बार घर आने को कहती हैं, मफलर पहनने को कहती हैं। पर जब वो करीब होती हैं तो एहसास ही नहीं होता कि उनका होना कितना कीमती है। फिर उन बच्चों को देखती हूं जो कड़ाके की ठंड में नंगे पैर चौराहों और भीड़ भरी सड़कों के बीच कभी पोस्टर बेचते हैं तो कभी फूल। कभी थालियों में भगवान की तस्वीरें रखकर आधे-अधूरे कपड़े पहनकर भीख मांगते हैं। शुक्र है दूर ही सही पर मेरी मां तो है।

Thursday, January 5, 2012

एक और गंगा मगर सियासी!

भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी राष्ट्रीय पुष्प की तुलना राष्ट्रीय नदी से कर गए। नकवी की जुबान फिसल गई या फिर उनका सामान्य ज्ञान कम पड़ गया! क्या हुआ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। नकवी ने अपनी पार्टी की पवित्रता का बखान करते हुए उसकी तुलना गंगा से कर दी। हुआ यूं कि बसपा के दागी मंत्रियों को पार्टी में शामिल करने पर भाजपा की कढ़ी आलोचना हुई। खुद पार्टी ही इस मुद्दे पर दो धड़ों में बंट गई पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली और सुषमा स्वाराज को नितिन गणकरी का यह फैसला नहीं भाया। बसपा के दरबदर किए गए मंत्रियों को भाजपा में शामिल करने को लेकर उठ रहे सवालों को शांत करने के लिए नकवी सामने आए और उन्होंने कहा, कमल दल (भाजपा) गंगा जैसी पवित्र पार्टी है, जिसमें तमाम नाले आकर गिरते हैं। मगर इससे गंगा को कोई फर्क नहीं पड़ता। बसपा से बाहर किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण मंत्री बाबू लाल कुशवाह और श्रम मंत्री बादशाह सिंह भाजपा में शामिल हो गए। हो-हल्ला मचा कि भ्राष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली पार्टी ने भ्रष्टाचारियों को अपने दल में कैसे शामिल कर लिया। कहने वालों ने यहां तक कह डाला कि भाजपा के वरिष्ठ एवं वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी एक तरफ भ्रष्टाचार विरोधी यात्र कर रहे हैं और दूसरी तरफ भ्रष्टाचारियों को पार्टी में शामिल किया जा रहा है। बसपा के पूर्व बाबू लाल कुशवाहा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटालों और बहुचर्चित सीएमओ हत्याकांड में कथित तौर पर लिप्त हैं। बादशाह सिंह की बात करें तो इन्हें लोकायुक्त की सिफारिश पर पद दलित किया गया। इन पर भी पद का दुरुपयोग करने और भ्रष्टाचार जैसे संगीन आरोप हैं। सीबीआई दोनों मामलों की जांच कर रही है। मायावती अपनी पार्टी के दागी मंत्रियों को दरकिनार करने में लगी हैं। इससे पहले भी कई और मंत्री निकाले जा चुके हैं। मायावती अपनी पार्टी को साफ करने में लगी हैं। इससे पहले भी चार मंत्री वन मंत्री फतेह बहादुर सिंह, प्राविधिक शिक्षा राज्य मंत्री सदल प्रसाद, अल्प संख्यक कल्याण एवं हज राज्य मंत्री अनीस अहमद खान उर्फ फूल बाबू और मुस्लिम वक्फ राज्य मंत्री शहजिल इस्लाम अंसारी को तत्काल प्रभाव से मंत्रिमंडल से निष्कासित किया जा चुका है। उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री ने इन मंत्रियों को इस्तीफा देने का मौका भी नहीं दिया। अगर संसदीय प्रक्रिया के जानकारों की मानें तो किसी मंत्रिमंडल से निष्कासिक करने से पहले मुख्यमंत्री पहले मंत्रियों से इस्तीफा देने को कहते हैं, इसके बाद अगर मंत्री अड़े रहें तो उन्हें बर्खास्त किया जा सकता है। इतना ही नहीं एक अन्य राज्य मंत्री ददन प्रसाद ने मौके की नजाकत को समझते हुए खुद ही इस्तीफा दे दिया। बसपा प्रमुख विधान सभा चुनावों से पहले अपनी पार्टी की सफाई करने में जुटी हैं। लेकिन भाजपा को क्या हो गया कि बसपा के दर बदर किए दागी मंत्रियों को अपने दामन में समेटने में लगी है। नकवी ने शायद इसी पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए कहा होगा कि भाजपा गंगा है। जैसे गंगा में कई नाले आकर गिरते हैं लेकिन गंगा की पवित्रता ज्यों की त्यों बनीं रहती है। गंगा किसी में भेदभाव नहीं करती। लोग पाप धुलने के लिए गंगा की शरण में जाते हैं, वैसे ही भाजपा में आकर सब पवित्र हो जाएंगे। अब चाहें कुशवाहा हों या फिर बादशाह सिंह क्या फर्क। लेकिन नकवी साहब को कौन समझाए कि पापियों के पाप धुलते-धुलते राम की गंगा मैली हो गई है! दो दशक से भी ज्यादा समय से गंगा की सफाई में सरकारी खजाने के हजारों करोड़ खर्च हो चुके हैं। देश की राष्ट्रीय समस्याओं में गंगा की सफाई शीर्ष पर है। ऐसे में नकवी साहब कमल दल से गंगा की तुलना करने में अड़े हैं।