Friday, January 3, 2014

दंगे के बाद का डर

कैंपों में ठंड में ठिठुरते लोग

कल फिर मुजफ्फरनगर से होकर लौटी। हालात अभी भी खराब हैं। कुछ को मुआवजा मिल चुका है। कुछ को मिलना है, और कुछ लोगों के लिए सरकार का कहना है कि ये लोग केवल मुआवजे की खातिर कैंपों में रह रहे हैं। कैंपों को उखाड़ना शुरू कर दिया गया है। राशन भेजना तो दो महीने पहले ही बंद कर दिया गया था। इस बार कैंप जाकर लौटने का मन नहीं किया। सोचा आखिर लोग इतना क्यों डरे हुए हैं? क्यों वापस नहीं लौटना चाहते हैं? सो मुजफ्फरनगर से लगभग 22 किलोमीटर दूर काकड़ गांव गई। शाहपुर कैंप से कुछ लोगों से बात की थी, उनके घर इसी गांव में थे। देखा तो वाकई तीन कमरे और दो कमरे के पक्के मकान थे। टूटे पड़े थे। लेकिन थोड़ी मेहनत करके इन्हें ठीक किया जा सकता है। फिर क्यों नहीं आना चाहते लोग। फिर दूसरे गांव गई कुटबा। गंभीर रूप से हिंसाग्रस्त गांवों में से एक। गांव के भीतर घुसते ही कुछ लोगों ने मेरी गाड़ी रोक ली। मेरी पहचान को लेकर संशकित थे। पूछा प्रेस से हो। मैंने कहा नहीं विद्यार्थी हूं। सांप्रदायिकता को लेकर शोध कर रही हूं। खैर छोड़ दिया। फिर कुछ लोगों ने हमें घेर लिया। मैं और मेरा ड्राईवर दो ही लोग थे। दिल धड़क रहा था, मानों इस गांव में आपातकाल लगा हो। खैर प्रधान से मिली। बात की। पर पहचान छात्रा के रूप में ही बताई। मुसलमानों के घर खाली पड़े थे। मस्जिद में ताला डाल दिया गया था? मस्जिद में ताला क्यों डाला गया, न जाने क्यों ये सवाल बार-बार मन में उठ रहा था? पर पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मेरे ड्राईवर को उसके जानने वालों के फोन आ रहे थे। जल्दी निकलो वहां से, अभी गांव में हालात खराब हैं। रात के छह साढ़े छह बजे होंगे अंधेरा बढ़ता जा रहा था। मेरी घबराहट भी बढ़ रही थी। आते समय भी लोगों ने पूछा कहां से आ रही है तू, कहां को जा रही? क्या करने आई थी? मेन रोड पर पहुंचकर सांस ली। क्या इस माहौल में लोग वापस घर जा सकते हैं?