राजनीति में राखी
राजस्थान से दिल्ली आकर हुमायूं को राखी बांधने वाली रानी कर्णवती की तरह ही सुषमा स्वाराज ने विदिशा पहुंचकर पार्टी कार्यकर्ताओं की कलाईयों में रक्षासूत्र बांधाकर अपनी रक्षा का जिम्मा भाईयों पर डाल दिया। समझने वाले समझ गए न समङो वो अनाड़ी.. सो चुनावी मौसम में रक्षाबंधन मनाने का अभिप्राय भाईयों को भी समझ में आ ही गया होगा। अगर हारे तो भाईयों सोच लो..कहीं लालजी टंडन वाला हाल न हो। बहन मायावती ने भी वर्ष 2003 में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन को राखी बांधी थी। कुछ ही दिनों बाद माया विफर गईं और बस फिर क्या था, लाल जी टंडन को लालची टंडन कहने से भी गुरेज नहीं बरता। खैर, बहन जी की बराबरी तो कोई भी राजनीतिक बहन नहीं कर सकती। अब तो उनके पास कई बाहुबली भाई हैं। इतने भाईयों की बहन को छेड़ने की हिम्मत भला किसमें है। बात संबंधों की हो और बाप- बेटी के रिस्ते का जिक्र न हो। जो लोग यह सोच रहे हैं कि राजनीति में भाई-बहनों की ही मोनोपोली है, वो लोग गलत हैं बाप-बेटी का रिस्ता भी यहां पर चर्चा में रहता है। बसपा संस्थापक कांशी राम ने भी मायावती को बेटी का औहदा देकर ही पार्टी में दाखिल किया था। बसपा संस्थापक ने तो अपना पितृधर्म पूरी तरह से निभाया लेकिन बेटी ने पिता की पार्टी का हाल क्या किया जग जाहिर है। कांशीराम ने तो दलितों के उद्धार के लिए पार्टी बनाई थी, लेकिन मायावती ने वक्त की नजाकत को समझते हुए मौजूदा लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण-मुस्लिम गठजोड़ को खास तवज्जो दी। इसमें गलत भी क्या है, हर पार्टी का पहला लक्ष्य होता है सत्ता पर काबिज होना। बगैर सत्ता दलितों का क्या खाक उद्धार करेंगे। ऐसा ही माया मेम साब ने सोचा होगा। मुङो पूरा यकीन है। बसपा संस्थापक ने अपने पितृ धर्म को पूरी तरह निभाया भी। भाजपा से रूठी भाजश की उमा भारती को भी अब आडवाणी में अपने पिता नजर आने लगे हैं। हालांकि, उन्होंने साफ कर दिया है कि उनके रिस्तों को सियासी चोला पहनाने की कोशिश न की जाए। और ऐसा भी नहीं है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता की तारीफ करके उमा घर वापसी का रास्ता साफ करने में लगी हैं। रूठी बेटी को घर की याद आ गई तो इसमें बुराई क्या है। लेकिन बहनों को समझना चाहिए कि तब की बात कुछ और थी कृष्ण तो भगवान थे,सो चक्र से चीर बढ़ाते गए। रही बात हुमायूं का तो तब का खान पान भी अलग था सो हुमायूं ने भी लड़लुड़ा कर अपना भ्रातृ धर्म निभा लिया था। पहले शत्रु बनाम विपक्ष साफ सुथरे ढंग से दिखाई देता था, अब तो पता ही नहीं चलता किसका हाथ किसके साथ।
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