Wednesday, February 5, 2014

कैंप खाली करवाने की हड़बड़ी क्यों?

मुजफ्फरनगर दंगे

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए मुजफ्फरनगर दंगों ने वहां एक तरह का सांप्रदायिक माहौल पैदा कर दिया है। हालांकि उत्तर प्रदेश में दंगे होना कोई बड़ी बात नहीं है। पर इस बार जो हुआ वह भायावह था। शायद इसलिए भी ज्यादा असर मेरे ऊपर पड़ा क्योंकि दंगों को इतने करीब से मैंने पहली बार देखा। लगातार राहत कैंपों में जाकर दंगा पीड़ितों से मिलना। मुजफ्फरनगर दंगो की त्रासदी का आंखों देखा हाल जानना वाकई दिल दहला देने वाला था। खबर लहरिया के लिए इसे मैंने लगातार कवर किया। गलती यह हुई कि मैं उसी समय इसे अपने ब्लाग में नहीं लिख पाई। शायद व्यस्तता ज्यादा थी या वहां जाकर आने के बाद मैं दंगा पीड़ितों की जिंदगी सोचने और उस खौफनाक मंजर से निकल ही नहीं पाती थी। पत्रकार होने के नाते मुझे उन सभी जानकारियों और अनुभवों को साझा करना चाहिए था। जो मुझे मिलीं, जिस एहसास को मैंने जिया वो मुझे बताना चाहिए था। पर नहीं कर पाई। लेकिन अपनी गलती सुधारते हुए कुछ एहसास और कुछ जानकारियां अब मैं साझा करने का मन बना चुकी हूं। रोजाना कुछ न कुछ तब तक लिखती रहूंगी जब तक मेरा मन कुछ हलका न हो जाए। 



दंगों से प्रभाावित पश्चिम उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में सरकार जैसे तैसे राहत कैंप खाली करवाने में जुटी है। कुछ परिवारों को मुआवजा दिया गया है और अब बहुत कम लोग कैंपों में रह रहे हैं।
जिले के लोई और शाहपुर कैंपों में जैसे ही लोगों को पांच लाख मुआवजे की चैक दी गई, वैसे ही उनके टेंट उखड़वाने के आदेश दे दिए गए। दोनों ही कैंपों के लोग काफी परेशान हैं क्योंकि इन पैसों से उन्होंने जमीन अभी ही ली है और फिलहाल उनके पास रहने के लिए कोई घर नहीं है। मुआवजा लेने वालों को सरकार ने साफ साफ कह दिया है कि वे अपने गांव नहीं लौट सकते हैं। मजबूरन, कुछ लोग आसपास के गांवों के लोगों के घरों में ही रह रहे हैं।

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